Monday, December 12, 2011

काले कर्मों वाले बाबा

बाबा रामदेव काफी समय से देश भर में काले धन के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. लेकिन तहलका की पड़ताल बताती है कि असल में उनका खुद का हाल पर उपदेश कुशल बहुतेरे जैसा है. काले धन को लेकर सरकारों को पानी पी-पीकर कोसने वाले बाबा रामदेव खुद उसी काले धन के पहाड़ पर विराजमान हैं...

साल 2004 की बात है. बाबा रामदेव योगगुरु के रूप में मशहूर हुए ही थे. चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही थी. टीवी चैनलों पर उनकी धूम थी. देश के अलग-अलग शहरों में चलने वाले उनके योग शिविरों में पांव रखने की जगह नहीं मिल रही थी और बाबा के औद्योगिक प्रतिष्ठान दिव्य फार्मेसी की दवाओं पर लोग टूटे पड़ रहे थे.लेकिन फार्मेसी ने उस वित्तीय वर्ष में सिर्फ छह लाख 73 हजार मूल्य की दवाओं की बिक्री दिखाई और इस पर करीब 54 हजार रुपये बिक्री कर दिया गया. यह तब था जब रामदेव के हरिद्वार स्थित आश्रम में रोगियों का तांता लगा था और हरिद्वार के बाहर लगने वाले शिविरों में भी उनकी दवाओं की खूब बिक्री हो रही थी. इसके अलावा डाक से भी दवाइयां भेजी जा रही थीं.

रामदेव के चहुंओर प्रचार और देश भर में उनकी दवाओं की मांग को देखकर उत्तराखंड के वाणिज्य कर विभाग को संदेह हुआ कि बिक्री का आंकड़ा इतना कम नहीं हो सकता. उसने हरिद्वार के डाकघरों से सूचनाएं मंगवाईं. पता चला कि दिव्य फार्मेसी ने उस साल 3353 पार्सलों के जरिए 2509.256 किग्रा माल बाहर भेजा था. इन पार्सलों के अलावा 13 लाख 13 हजार मूल्य के वीपीपी पार्सल भेजे गए थे. इसी साल फार्मेसी को 17 लाख 50 हजार के मनीऑर्डर भी आए थे.

सभी सूचनाओं के आधार पर राज्य के वाणिज्य कर विभाग की विशेष जांच सेल (एसआईबी) ने दिव्य फार्मेसी पर छापा मारा. इसमें बिक्रीकर की बड़ी चोरी पकड़ी गई. छापे को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं, 'तब तक हम भी रामदेव जी के अच्छे कार्यों के लिए उनकी इज्जत करते थे. लेकिन कर प्रशासक के रूप में हमें मामला साफ-साफ कर चोरी का दिखा.' राणा आगे बताते हैं कि मामला कम से कम पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी का था.

भ्रष्टाचार और काले धन को मुद्दा बनाकर रामदेव पिछले दिनों भारत स्वाभिमान यात्रा पर निकले हुए थे. इस यात्रा का पहला चरण खत्म होने के बाद 23 नवंबर को वे दिल्ली में थे. यहां बाबा का कहना था कि यदि संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल और काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने वाले बिल पारित नहीं होते हैं तो वे उन पांच राज्यों में आंदोलन करेंगे जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इससे कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में उनका कहना था, ‘जिस दिन काले धन पर कार्रवाई शुरू होगी, उस दिन पता चलेगा कि जिन्हें हम खानदानी नेता समझ रहे थे उनमें से 99 प्रतिशत तो खानदानी लुटेरे हैं.’
अब सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हों तो? फिर तो वही बात हुई कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की यह पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.

सबसे पहले तो यह सवाल कि काला धन बनता कैसे है. आयकर विभाग के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, 'करों से बचाई गई रकम और ट्रस्टों में दान के नाम पर मिले पैसे से काला धन बनता है. काले धन को दान का पैसा दिखाकर, उस पर टैक्स बचाकर उसे फिर से उद्योगों में निवेश किया जाता है. इससे पैदा होने वाली रकम को पहले देश में जमीनों और जेवरात पर लगाया जाता है. इसके बाद भी वह पूरा न खप सके तो उसे चोरी-छुपे विदेश भेजा जाता है. यह एक अंतहीन श्रृंखला है जिसमें बहुत-से ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी होती है.’

दिव्य फार्मेसी पर छापे की कार्रवाई को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं कि उनकी टीम ने इस छापे से पहले काफी होमवर्क किया था. राणा कहतेे हैं, ‘मेरी याददाश्त के अनुसार लगभग पांच करोड़ रु के राज्य और केंद्रीय बिक्री कर की चोरी का मामला बन रहा था.’ टीम के एक अन्य सदस्य बताते हैं, ‘पुख्ता सबूतों के साथ 2000 किलो कागज सबूत के तौर पर इकट्ठा किए गए थे.’

रामदेव से जुड़ी फार्मेसी पर छापा मारने पर उत्तराखंड के तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बड़े नाराज हुए थे. उन्होंने इस छापे की पूरी कार्रवाई की रिपोर्ट सरकार से तलब की थी. उस दौर में प्रदेश के प्रमुख सचिव (वित्त) इंदु कुमार पांडे ने राज्यपाल को भेजी रिपोर्ट में छापे की कार्रवाई को निष्पक्ष और जरूरी बताया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इस रिपोर्ट के साथ अपना विशेष नोट लिख कर भेजा था जिसमें उन्होंने प्रमुख सचिव की बात दोहराई थी. रामदेव ने अधिकारियों पर छापे के दौरान बदसलूकी का आरोप लगाया था जिसे राज्य सरकार ने निराधार बताया था.

विभाग के कुछ अधिकारियों का मानना है कि रामदेव के मामले में अनुचित दबाव पड़ने के बाद डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने समय से चार साल पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली थी. राणा को तब विभाग के उन उम्दा अधिकारियों में गिना जाता था जो किसी दबाव से डिगते नहीं थे. एसआईबी के इस छापे के बाद राज्य या केंद्र की किसी एजेंसी ने रामदेव के प्रतिष्ठानों पर छापा मारने की हिम्मत नहीं की. इसी के साथ रामदेव का आर्थिक साम्राज्य भी दिनदूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा.

लेकिन बिक्री कम दिखाना तो कर चोरी का सिर्फ एक तरीका था. दिव्य फार्मेसी एक और तरीके से भी कर की चोरी कर रही थी. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि उस साल फार्मेसी ने वाणिज्य कर विभाग को दिखाई गई कर योग्य बिक्री से पांच गुना अधिक मूल्य की दवाओं (30 लाख 17 हजार रु) का ‘स्टाॅक हस्तांतरण’ बाबा द्वारा धर्मार्थ चलाए जा रहे ‘दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट’ को किया. रिटर्न में फार्मेसी ने बताया कि ये दवाएं गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त में बांटी गई हैं. लेकिन वाणिज्य कर विभाग के तत्कालीन अधिकारी बताते हैं कि दिव्य फार्मेसी उस समय गरीबों को मुफ्त बांटने के लिए दिखाई जा रही दवाओं को कनखल स्थित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट से बेच रही थी. दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट के पास में ही रहने वाले भारत पाल कहते हैं, 'पिछले 16 सालों के दौरान मैंने बाबा के कनखल आश्रम में कभी मुफ्त में दवाएं बंटती नहीं देखीं.’

रामदेव काले धन की बात करते हैं, मगर बिक्रीकर अधिकारियों के मुताबिक उनकी दिव्य फार्मेसी ने बिक्री का आंकड़ा बहुत कम दिखाकर 2004 में पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी की. यही नहीं, गरीबों को मुफ्त दवा बांटने के नाम पर फार्मेसी ने रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को अरबों रुपये का स्टॉक ट्रांसफर किया जिसे बेचकर फिर से करोड़ों का बिक्रीकर बचाया गया. कर बचाकर ही काला धन बनता है

इसी तर्ज पर आज भी दिव्य फार्मेसी रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को गरीबों को मुफ्त दवाएं बांटने के नाम पर मोटा स्टॉक ट्रांसफर कर रही है. अभी तक दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट का उत्तराखंड राज्य में वाणिज्य कर में पंजीयन तक नहीं है. नियमानुसार बिना पंजीयन के ये ट्रस्ट किसी सामान की बिक्री नहीं कर सकते, लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन ट्रस्टों में स्थित केंद्रों से हर दिन लाखों की दवाएं और अन्य माल बिकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान दिव्य फार्मेसी से दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और अन्य स्थानों में अरबों रुपये मूल्य का स्टाॅक ट्रांसफर हुआ है जिसकी बिक्री पर नियमानुसार बिक्री कर देना जरूरी है. ट्रस्टों के अलावा देश भर मेंे रामदेव के शिविरों में दवाओं के मुफ्त बंटने के दावे की जांच करना मुश्किल है, परंतु इन शिविरों में हिस्सा लेने वाले श्रद्धालु जानते और बताते हैं कि यहां दवाएं मुफ्त में नहीं बांटी जातीं. अब दिव्य फार्मेसी द्वारा बनाई जा रही 285 तरह की दवाएं और अन्य उत्पाद इंटरनेट से भी भेजे जाने लगे हैं. इंटरनेट पर बिकने वाली दवाओं पर कैसे बिक्री कर लगे, यह उत्तराखंड का वाणिज्य कर विभाग नहीं जानता. इन दिनों नोएडा में रह रहे जगदीश राणा कहते हैं, ‘रामदेव को जितना बिक्री कर देना चाहिए, वे उसका एक अंश भी नहीं दे रहे.’

उत्तराखंड में बिक्री कर ही राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा है. उत्तराखंड सरकार के कर सलाहकार चंद्रशेखर सेमवाल बताते हैं, ‘पिछले साल राज्य में बिक्री कर से कुल 2940 करोड़ रु की कर राशि इकट्ठा हुई थी, यह राशि राज्य के कुल राजस्व का 60 प्रतिशत है.’ इसी पैसे से सरकार राज्य में सड़कें बनाती है , गांवों में पीने का पानी पहुंचाया जाता है, अस्पतालों में दवाएं जाती हैं , सरकारी स्कूल खुलते हैं और ऐसे ही जनकल्याण के दूसरे काम चलाए जाते हैं. रामदेव नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें देश के विकास से कोई मतलब नहीं है, वे बस अपनी झोली भरना चाहते हैं. लेकिन जब रामदेव का अपना ही ट्रस्ट इतने बड़े पैमाने पर करों की चोरी कर रहा हो तो क्या यह सवाल उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए?

केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के एक पूर्व सदस्य बताते हैं, ‘करों को बचा कर ही काला धन पैदा होता है और इस काले धन का सबसे अधिक निवेश जमीनों में किया जाता है.’ पिछले सात-आठ साल के दौरान हरिद्वार जिले में रामदेव के ट्रस्टों ने हरिद्वार और रुड़की तहसील के कई गांवों, नगर क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में जमकर जमीनें और संपत्तियां ली हैं. अखाड़ा परिषद के प्रवक्ता बाबा हठयोगी कहते हैं, ‘रामदेव ने इन जमीनों के अलावा बेनामी जमीनों और महंगे आवासीय प्रोजेक्टों में भी भारी निवेश किया है.’ हठयोगी आरोप लगाते हैं कि हरिद्वार के अलावा रामदेव ने उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भी जमकर जमीनें खरीदी हैं. तहलका ने इन आरोपों की भी पड़ताल की. जो सच सामने आया वह चौंकाने वाला था.

जमीन का फेर

योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ने के बाद रामदेव ने वर्ष 2005 में पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट के नाम से एक और ट्रस्ट शुरू किया. रामदेव तब तक देश की सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हस्ती हो गए थे. 15 अक्टूबर, 2006 को गरीबी हटाओ पर हुए मिलेनियम अभियान में रामदेव ने विशेष अतिथि के रूप में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया. अपने वैश्विक विचारों को मूर्त रुप देने के लिए अब उन्हें हरिद्वार में और ज्यादा जमीन की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए आचार्य बालकृष्ण, दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट के नाम से दिल्ली-माणा राष्ट्रीय राजमार्ग पर हरिद्वार और रुड़की के बीच शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में खूब जमीनें खरीदी गईं. राजस्व अभिलेखों के अनुसार शांतरशाह नगर की खाता संख्या 87, 103, 120 और 150 में दर्ज भूमि रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर है. यह भूमि कुल 23.798 हेक्टेयर(360 बीघा) के लगभग बैठती है और इसी पर पतंजलि फेज-1, पतंजलि फेज- 2 और पतंजलि विश्वविद्यालय बने हैं.

बढेड़ी राजपूताना के पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं कि शांतरशाह नगर और उसके आसपास रामदेव के पास 1000 बीघा से अधिक जमीन है. लेकिन बाबा के सहयोगियों और ट्रस्टों के नाम पर खातों में केवल 360 बीघा जमीन ही दर्ज है. इस भूमि में से रामदेव ने 20.08 हेक्टेयर भूमि को अकृषित घोषित कराया है. राज्य में कृषि भूमि को अकृषित घोषित कराने के बाद ही कानूनन उस पर निर्माण कार्य हो सकता है.

तहलका ने राजस्व अभिलेखों की गहन पड़ताल की. पता चला कि रामदेव, उनके रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने शांतरशाह नगर के आसपास कई गांवों में बेनामी जमीनों पर पैसा लगाया है. उदाहरण के तौर पर, शांतरशाह नगर की राजस्व खाता संख्या 229 में जिन गगन कुमार का नाम दर्ज है वे कई वर्षों से आचार्य बालकृष्ण के पीए हैं. 8000 रु महीना पगार वाले गगन आयकर रिटर्न भी नहीं भरते. गगन ने 15 जनवरी, 2011 को शांतरशाह नगर में 1.446 हेक्टेयर भूमि अपने नाम खरीदी. रजिस्ट्री में इस जमीन का बाजार भाव 35 लाख रु दिखाया गया है, परंतु हरिद्वार के भू-व्यवसायियों के अनुसार किसी भी हाल में यह जमीन पांच करोड़ रुपये से कम की नहीं है. यह जमीन अनुसूचित जाति के किसान की थी जिसे उपजिलाधिकारी की विशेष इजाजत से खरीदा गया है. इससे पहले गगन ने 14 मई, 2010 को रुड़की तहसील के बाबली-कलन्जरी गांव में एक करोड़ 37 लाख रु बाजार मूल्य दिखा कर जमीन की रजिस्ट्री कराई थी. यह जमीन भी 15 करोड़ रु से अधिक की बताई जा रही है. स्थानीय पत्रकार अहसान अंसारी का दावा है कि बाबा ने और भी दसियों लोगों के नाम पर हरिद्वार में अरबों की जमीनें खरीदी हैं. बाबा हठयोगी सवाल करते हैं, ‘देश भर में काले धन को लेकर मुहिम चला रहे रामदेव के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर महज आठ हजार रुपये महीना पाने वाले गगन कुमार जैसे इन दसियों लोगों के पास अरबों की जमीनें खरीदने के लिए पैसे कहां से आए.’

शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद बाबा की नजर हरिद्वार की औरंगाबाद न्याय पंचायत पर पड़ी. इसी न्याय पंचायत में राजाजी राष्ट्रीय पार्क की सीमा पर लगे औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव हैं. उत्तराखंड में भू-कानूनों के अनुसार राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति या ट्रस्ट राज्य में 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. विशेष परिस्थितियों और प्रयोजन के लिए ही इससे अधिक भूमि खरीदी जा सकती है, लेकिन इसके लिए शासन की अनुमति जरूरी होती है.

रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को 16 जुलाई, 2008 को उत्तराखंड सरकार से औरंगाबाद, शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला आदि गांवों में पंचकर्म व्यवस्था, औषधि उत्पादन, औषधि निर्माणशाला एवं प्रयोगशाला स्थापना के लिए 75 हेक्टेयर जमीन खरीदने की इजाजत मिली थी. शर्तों के अनुसार खरीदी गई भूमि का प्रयोग भी उसी कार्य के लिए किया जाना चाहिए जिस कार्य के लिए बताकर उसे खरीदने की इजाजत ली गई है. पहले बगीचा रही इस कृषि-भूमि पर रामदेव ने योग ग्राम की स्थापना की है. श्रद्धालुओं को बाबा के इस रिजॉर्टनुमा ग्राम में बनी कॉटेजों में रहकर पंचकर्म कराने के लिए 1000 रु से लेकर 3500 रु तक प्रतिदिन देना होता है.

आयकर विभाग की नजर से बचने के लिए बेनामी जमीनें खरीदी गई हैं और ज्यादातर जमीनों को दाखिल-खारिज नहीं कराया गया है. बालकृष्ण के पीए गगन कुमार की तनख्वाह भले ही 8000 रु महीना हो लेकिन वे करोड़ों की जमीनों के मालिक हैं. उधर, जो जमीनें ट्रस्ट के नाम पर खरीदी गई हैं उनमें भी कई मामलों में 90 फीसदी तक स्टांप ड्यूटी की चोरी की गई है

औरंगाबाद गांव के पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान दावा करते हैं कि उनके गांव में बाबा के ट्रस्ट और उनके लोगों के कब्जे में 2000 बीघे के लगभग भूमि है. लेकिन राजस्व अभिलेखों में रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके ट्रस्टों के नाम पर एक बीघा भूमि भी दर्ज नहीं है. क्षेत्र के लेखपाल सुभाश जैन्मी इस बात की पुष्टि करते हुए बताते हैं, ‘राजस्व रिकॉर्डों में भले ही रामदेव के ट्रस्ट के नाम एक भी बीघा जमीन दर्ज नहीं हुई है परंतु उत्तराखंड शासन से इजाजत मिलने के बाद पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने औरंगाबाद और तेलीवाला गांव में काफी जमीनों की रजिस्ट्रियां कराई हैं.’ राजस्व अभिलेखों में दाखिल-खारिज न होने का नतीजा यह है कि किसानों की सैकड़ों बीघा जमीनें बिकने के बाद भी अभी तक उनके ही नाम पर दर्ज हैं. इन सभी भूमियों पर रामदेव के ट्रस्टों का कब्जा है. राजस्व अभिलेखों में अभी भी औरंगाबाद ग्राम सभा की सारी जमीन कृषि भूमि है. नियमों के अनुसार कृषि भूमि पर भवन निर्माण करने से पहले उस भूमि को उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 143 के अनुसार अकृषित घोषित करके उसे आबादी में बदलने की अनुमति लेनी होती है. इसके लिए आवेदक के नाम खतौनी में जमीन दर्ज होना आवश्यक है. रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर इन गांवों में एक इंच भूमि भी दर्ज नहीं है, लेकिन गजब देखिए कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर यहां योग ग्राम के रूप में पूरा शहर बसा दिया गया है.

औरंगाबाद गांव के बहुत बड़े हिस्से को कब्जे में लेने के बाद रामदेव के भूविस्तार अभियान की चपेट में उससे लगा गांव तेलीवाला आया. योग ग्राम स्थापित करने के डेढ़ साल बाद फिर उत्तराखंड शासन ने पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट को 26 फरवरी, 2010 को हरिद्वार के औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव में और 155 हेक्टेयर (2325 बीघा) जमीन खरीदने की इजाजत दी. यह इजाजत पतंजलि विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दी गई थी. इस तरह उत्तराखंड शासन से बाबा के पतंजलि योगपीठ को औरंगाबाद और तेलीवाला गांव की कुल 230 हेक्टेयर (3450 बीघा) जमीन खरीदने की अनुमति मिली जो इन दोनों गांवों की खेती वाली भूमि का बड़ा भाग है. इसके अलावा बाबा ने इन गांवों में सैकड़ों बीघा बेनामी जमीनें कई लोगों के नाम पर ली हैं जिन्हें वे धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रिया पूरी करके अपने ट्रस्टों के नाम कराएंगे.

कई गांववाले दावा करते हैं कि तेलीवाला और औरंगाबाद गांव में रामदेव के ट्रस्ट के कब्जे में 4000 बीघा से अधिक जमीन है. प्रशासन द्वारा मिली इतनी अधिक भूमि खरीदने की इजाजत और बेनामी व कब्जे वाली जमीनों को देखने के बाद इस दावे में सत्यता लगती है. लेकिन राजस्व अभिलेख देखें तो औरंगाबाद ग्राम सभा की ही तरह तेलीवाला गांव में भी रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर एक इंच भूमि दर्ज नहीं है.

आखिर ऐसा क्यों? यह जानने से पहले कुछ और सच्चाइयां जानते हैं. तेलीवाला गांव में 2116 खातेदारों के पास कुल 9300 बीघा जमीन है. गांव के 330 गरीब भूमिहीनों के नाम सरकार से कभी पट्टों पर मिली 750 बीघा कृषि-भूमि या घर बनाने योग्य भूमि है. लेखपाल जैन्मी बताते हैं कि जमीनें बेचने के बाद गांव के खातेदारों में से सैकड़ों किसान भूमिहीन हो गए हैं. गांववालों के अनुसार गांव की कुल भूमि का बड़ा हिस्सा रामदेव के पतंजलि योगपीठ के कब्जे में है. इसकी पुष्टि बालकृष्ण का एक पत्र भी करता है. बालकृष्ण ने सात सितंबर, 2007 को ही हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर स्वीकारा था कि तेलीवाला गांव की 80 प्रतिशत भूमि के उन्होंने बैनामे करा लिए हैं इसलिए गांव की फिर चकबंदी की जाए. यानी सब कुछ पहले से तय था और प्रशासन से बाद में जमीन खरीदने की विशेष अनुमति मिलना महज एक औपचारिकता थी. प्रस्ताव में किए गए बालकृष्ण के दावे को सच माना जाए तो रामदेव के पास अकेले तेलीवाला गांव में ही करीब 8000 बीघा जमीन होनी चाहिए. गांववालों ने समयपूर्व, नियम विरुद्ध हो रही इस चकबंदी का विरोध किया है. उन्हें आशंका है कि चकबंदी करा कर बालकृष्ण अपनी दोयम भूमि को किसानों की उपजाऊ भूमि से बदल देंगे.

हरिद्वार में रामदेव के आर्थिक साम्राज्य का तीसरा बड़ा भाग पदार्था-धनपुरा ग्राम सभा के आसपास है. बाबा ने यहां के मुस्तफाबाद, धनपुरा, घिस्सुपुरा, रानीमाजरा और फेरुपुरा मौजों में जमीनें खरीदी हैं. ये जमीनें पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के नाम पर शासन की अनुमति से खरीदी गई हैं. आठ जुलाई, 2008 को बाबा को मिली अनुमति में बृहत स्तर पर औषधि निर्माण और आयुर्वेदिक अनुसंधान के उद्देश्य की बात है. पर बाद में यहां फूड पार्क लिमिटेड की स्थापना की गई है. ग्रामीणों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड लगभग 700 बीघा जमीन पर है. 98 करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर केंद्र के फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय से 50 करोड़ रु की सब्सिडी (सहायता) मिली है. नौ कंपनियों के इस समूह में अधिकांश कंपनियां रामदेव के नजदीकियों द्वारा बनाई गई हैं. मां कामाख्या हर्बल लिमिटेड में रामदेव के जीजा यशदेव आर्य, योगी फार्मेसी के निदेशक सुनील कुमार चतुर्वेदी और संजय शर्मा जैसे रामदेव के करीबी ही निदेशक हैं. रामदेव के पतंजलि फूड पार्क व झारखंड फूड पार्क को स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री का आशीर्वाद साफ-साफ झलकता है. फूड पार्क के उद्घाटन के समय रामदेव ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्री के सामने घोषणा की थी कि वे हर साल उत्तराखंड से 1000 करोड़ की जड़ी-बूटियां या कृषि उत्पाद खरीदेंगे. परंतु बाबा ने सरकार से करोड़ों रुपये की सब्सिडी खा कर भी वादा नहीं निभाया. चमोली जिले में जड़ी-बूटी के क्षेत्र में काम करने वाली एक संस्था अंकुर संस्था के जड़ी-बूटी उत्पादक सुदर्शन कठैत का आरोप है कि बाबा ने उत्तराखंड में अभी एक लाख रुपये की जड़ी-बूटियां भी नहीं खरीदी हैं.

पदार्था के राजस्व अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि यहां पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड, रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके किसी नजदीकी व्यक्ति के नाम पर कोई जमीन दर्ज नहीं है. सवाल उठता है कि बिना राजस्व खातों में जमीन दर्ज हुए बाबा को कैसे फूड पार्क के नाम पर बने इस प्रोजेक्ट के लिए सब्सिडी मिली. यह सवाल जब हम राज्य सरकार के सचिव स्तर के संबंधित अधिकारी से पूछते हैं तो वे बताते हैं, 'हमारे पास कभी फूड पार्क की फाइल नहीं आई, संभवतया यह फाइल सीधे केंद्र सरकार को भेज दी गई हो.'

रामदेव ने हरिद्वार के दौलतपुर और उसके पास के गांवों जैसे बहाद्दरपुर सैनी, जमालपुर सैनीबाग, रामखेड़ा, हजारा और कलियर जैसे कई गांवों में भी बड़ी मात्रा में नामी- बेनामी जमीनें खरीदी हैं. हरिद्वार के एक महंत आचार्य बालकृष्ण के साथ एक बार उनकी जमीनों को देखने गए. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं, 'दिन भर घूमकर भी हम बाबा की सारी जमीनें नहीं देख पाए.’ प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गज दावा करते हैं कि हरिद्वार में कम से कम 20 हजार बीघा जमीन बाबा के कब्जे में है.
लेकिन रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर राजस्व अभिलेखों में हरिद्वार में लगभग 400 बीघा भूमि ही दर्ज है. सवाल उठता है कि सभी तरह से ताकतवर रामदेव ने आखिर इतनी बड़ी मात्रा में जमीन खरीदने के बाद अपने ट्रस्टों या लोगों के नाम पर जमीन का दाखिल-खारिज क्यों नहीं कराया. इसका जवाब देते हुए कर विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीनों का दाखिल-खारिज कराते ही बाबा की जमीनें आयकर विभाग की नजरों में आ सकती थीं इसलिए विभाग की संभावित जांचों से बचने के लिए इन जमीनों को दाखिल-खारिज करा कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं कराया गया है.

तहलका ने इन जमीनों के लेन-देन में लगे धन पर भी नजर डाली. पता चला कि बाबा से जुड़े लोग या ट्रस्ट इन जमीनों की रजिस्ट्री तो सर्कल रेट पर करते थे परंतु बाबा ने किसानों को जमीन का मूल्य उसके सर्कल रेट से कई गुना अधिक दिया. उत्तराखंड का औद्योगिक शहर बनने के बाद हरिद्वार में जमीनों के भाव आसमान छू रहे थे. ग्रामीणों की मानें तो बाबा के मैनेजरों ने दलालों को भी गांव में जमीन इकट्ठा करने के एवज में मोटा कमीशन दिया.

जमीनों की खरीद-फरोख्त के सिलसिले में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी के न्यायालय में वर्ष 2009 और 2010 में हुए दर्जन भर से अधिक स्टांप अधिनियम के मामले चल रहे हैं. ये मामले पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा पदार्था-धनपुरा गांव के मुस्तफाबाद मौजे में खरीदी गई जमीनों पर स्टांप शुल्क चोरी से संबंधित हैं. इन मामलों में न्यायालय ने पाया कि रजिस्ट्री करते समय स्टांप शुल्क बचाने की नीयत से इन जमीनों का प्रयोजन जड़ी-बूटी रोपण यानी कृषि और बागबानी दिखाया गया. बाबा के लोग रजिस्ट्री कराते हुए यह भी भूल गए कि उन्हें शासनादेश में इस भूमि को खरीदने की अनुमति औषधि निर्माण व अनुसंधान के लिए मिली थी जो कृषि कार्य से हटकर उद्योग की श्रेणी में आता है. ऊपर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने इस जमीन को अकृषित घोषित कराए बिना ही इस पर औद्योगिक परिसर स्थापित कर दिया है. कम स्टाम्प शुल्क लगाने में पकड़े गए इन मामलों में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने पतंजलि योगपीठ पर स्टाम्प चोरी और अर्थदंड के रूप में करीब 55 लाख रु का जुर्माना भी लगाया. पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान का मानना है कि रामदेव के ट्रस्टों और कंपनियों ने हरिद्वार में हजारों रजिस्ट्रियां की हैं और यदि सारे मामलों की जांच की जाए तो उन पर स्टांप चोरी के रूप में करोड़ों रु निकलेंगे.

उपजिलाधिकारी के इन निर्णयों (बायीं तरफ चित्र देखें) को ध्यान से देखने पर साफ दिखता है कि किस तरह झूठे तथ्यों के आधार पर जमीन के सौदों में 90 फीसदी से भी ज्यादा स्टांप शुल्क की चोरी की गई. प्रॉपर्टी बाजार के सूत्रों के अनुसार इन सौदों में किसानों को उपजिलाधिकारी के मूल्यांकन से भी कई गुना अधिक कीमत मिली थी. प्रॉपर्टी बाजार के दिग्गजों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क वाले इलाके में बाबा के जमीन खरीदते समय जमीन का सर्किल रेट 35000 रु प्रति बीघा के लगभग था जबकि बाबा ने आठ से 10 लाख रु बीघा तक जमीनें खरीदी हैं. इस तरह कई किसानों को जमीन के एवज में पतंजलि फूड लिमिटेड से पांच से छह करोड़ रुपये तक काला धन मिला है. पतंजलि फेज -1 और फेज-2 के लिए रामदेव ने जमीन सर्कल रेट (10 हजार से लेकर 40 हजार) पर खरीदी गई दिखाई है, लेकिन वास्तव में जमीनें 12 लाख रु बीघा तक में खरीदी हैं. यही तेलीवाला में भी हुआ है. पतंजलि योगपीठ के पास बन रहे महंगे फ्लैटों में भी लोग बाबा की साझेदारी बताते हैं.

इनमें से कई सीधे-सादे गांववालों ने पतंजलि से मिला जमीन का सारा पैसा बैंकों में जमा करा दिया. अब ये ग्रामीण आयकर विभाग की जांच की जद में आ गए हैं. विभाग भले ही आज तक यह पता न कर पाया हो कि रामदेव को हेलिकॉप्टर किसने दान किया लेकिन पतंजलि को अपनी जमीन बेचने के एवज में सर्किल भाव से कई गुना कीमत मिलने के बाद आयकर की जांचों से इन गांववालों की जानें सूख गई हैं. आचार्य प्रमोद कृष्ण कहते हैं, ‘यदि गरीब लोगों पर फेमा के मामले दर्ज होते तो अब तक उनके खाते सील कर उन्हें जेल भेज दिया जाता, लेकिन रामदेव पर केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही.’ प्रमोद कृष्ण की शिकायतों पर ही रामदेव के विरुद्ध फेमा के मामले दर्ज हुए हैं और बालकृष्ण के विरुद्ध सीबीआई जांच शुरू हुई है. उनका मानना है कि देश और विदेश में जमकर काला धन लगाने वाले रामदेव केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करके अपने विरुद्ध कार्रवाई न होने देने का दबाव बनाने के लिए देश भर में काले धन का विरोध करते घूम रहे हैं.

बाबा ने सारी जमीनें उसी तरह खरीदी हैं जैसे एक भू-व्यवसायी या उद्योगपति खरीदता है. जमीनों की खरीद में खूब काले धन का प्रयोग हुआ है. हरिद्वार की कई महंगी बेनामी संपत्तियों से बाबा का संबंध बताया जाता है. हरिद्वार के प्राॅपर्टी बाजार के एक दिग्गज कहते हैं, ‘मोटे तौर पर यदि हर बीघा पर केवल दो लाख रुपये भी सर्कल रेट से अधिक दिए गए होंगे तो रामदेव ने हरिद्वार में ही जमीनों पर कम से कम 400 करोड़ रु का काला धन लगाया है.’

रामदेव देश भर में रोज कहते हैं कि उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है और कहीं उनका बैंक खाता नहीं है. सच भी यही है कि बाबा के नाम पर कोई जमीन नहीं है. औरंगाबाद गांव पहले चौहान जमींदारों का था. क्षेत्र समिति के सदस्य चरण सिंह चौहान बताते हैं कि उनके बिरादरों में से कई परिवारों की सैकड़ों बीघा जमीनें सीलिंग में आईं और गांव के ही भूमिहीनों को दी गईं. उन्हें गरीबों को जमीन देने का कोई गम नहीं है. परंतु अब वे पट्टे की इन जमीनों पर रामदेव के लोगों के कब्जे से चिंतित होकर कहते हैं, ‘अब रामदेव जैसे कई संत नये जमींदारों के रूप में उभरे हैं जो गरीबों का हर तरह से शोषण कर रहे हैं.’ इनके पास हजारों बीघा उपजाऊ जमीनें हैं. चौहान बताते हैं, ‘अब सरकारों में इतनी हिम्मत ही नहीं है कि गरीबों की उपजाऊ जमीनों का भक्षण करने वाले इन नवजमींदारों को किसी कानून से ठीक कर सकें.'

पिछले साल रामदेव ने बयान दिया था कि उत्तराखंड के एक मंत्री ने उनसे दो करोड़ रुपये घूस में मांगे थे. पर बाबा ने मंत्री का नाम नहीं बताया था. उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार कहते हैं, ‘मंत्री ने शायद इन जमीनों की खरीद और लूट अभियान में मदद करने के एवज में बाबा से यह मांग की होगी.’रामदेव का वाहन अब साइकिल से हेलिकॉप्टर हो गया है. कभी आश्रमों में शरण लेकर रहने वाले रामदेव अब देश भर में हजारों बीघा जमीनों के उपभोग की हैसियत रखते हैं. उनका साम्राज्य इंग्लैड के लिटिल कुमरा द्वीप तक है. बाबा ने उत्तराखंड में भी गंगा नदी पर बनी एक द्वीपनुमा भौगोलिक संरचना को अपने लोगों के नाम पर खरीद लिया है. व्यास घाट के पास गंगा पर फैली हजारों बीघा की यह भूमि पूरे उत्तराखंड में बेमिसाल और खूबसूरत है. इस जगह के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी वर्णन किया था.

रामदेव के प्रवचनों में काले धन और भ्रष्टाचार के अलावा देश के किसानों, मजदूरों और गरीबों की दुर्दशा की भी चिंता दिखती है. पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं, ‘हमने रामदेव द्वारा किया कोई जनहित का काम अभी तक आसपास के गांवों में तो नहीं देखा.' तहलका ने भी यही पाया. जिन गांवों में रामदेव ने जमीनें खरीदी हैं वहां समाजसेवा करना तो दूर रामदेव वहां के समाज से भी कटे हैं.

फर्जीवाड़े दुनिया भर के

तेलीवाला गांव में रामदेव की जमीनों के लगभग 20 बीघा वाले हिस्से में एक भव्य भवन वाला बड़ा आवासीय परिसर बना है. इस पर पर बाबा के बड़े-बड़े फोटो लगे हैं. बाबा ने तेलीवाला की अपनी सारी जमीन पर योग ग्राम की ही तरह बिजली के प्रवाह वाली सबसे महंगी तार-बाड़ लगाई है. इस परिसर के प्रभारी राजस्थान निवासी कोई शास्त्री जी हैं. परिसर में ट्रैक्टर सहित कई कृषि यंत्र दिखते हैं. बाबा के सेवक इस परिसर में शाहीवाल नस्ल की गायें भी पालते हैं. इसके पास ही ‘पतंजलि धर्मकांटा’ भी लगाया गया है जहां से गन्ना तुल कर परिसर में बने गुड़ के कोल्हू पर पिराई के लिए जाता है. कोल्हू दो हैं जिन्हें चलाने के लिए रामदेव के लोग आसपास के गांवों के किसानों से गन्ना खरीदते हैं. आने वाला गन्ना तोलने के लिए उन्होंने बाकायदा धर्मकांटा तक लगाया है. विजयपाल सैनी बताते हैं, ‘बाबा की इन चरखियों में हर दिन लगभग 300 क्विंटल गन्ना पिरोया जाता है.’
तेलीवाला में बिजली के दो कनेक्शन भी आचार्य बालकृष्ण के नाम व दिव्य योग मंदिर, कनखल के पते पर लिए गए हैं. बिजली के एक कनेक्शन की उपभोक्ता संख्या 711205 है. 35 हार्स पावर का एक कनेक्शन ट्यूब-वेल के नाम पर लिया गया है. उत्तराखंड पावर काॅरपोरेशन के उपमहाप्रबंधक एमसी गुप्ता से जब हम रामदेव का जिक्र किए बिना पूछते हैं तो वे बताते हैं कि कृषि कार्य हेतु बोरिंग के लिए किसी भी उपभोक्ता को जमीन का मालिकाना हक सिद्ध करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि वह जमीन की खतौनी पेश करे. आचार्य बालकृष्ण के नाम पर तेलीवाला गांव में एक भी बीघा जमीन खतौनी में दर्ज नहीं है. यह पूछने पर कि बिना जमीन के किस आधार पर बालकृष्ण को बोरिंग हेतु बिजली का कनेक्शन दिया गया तो गुप्ता कहते हैं, 'जांच करके ही कुछ बता सकते हैं. जांच में किसी भी किस्म की अनियमितता पाए जाने पर तुरंत कार्रवाई करेंगे. '

तेलीवाला में दो कोल्हू हैं जिनमें रोज सैकड़ों क्विंटल गन्ने की पेराई होती है. काम व्यावसायिक है लेकिन बालकृष्ण के नाम पर बिजली के ये कनेक्शन कृषि कार्य हेतु हैं. इन पर सिर्फ 80 पैसा प्रति यूनिट की दर से बिल आता है. इससे सरकार को रोज हजारों रु की चपत लग रही है. नियमों के मुताबिक बालकृष्ण को ये कनेक्शन मिलने ही नहीं चाहिए थे क्योंकि यह जमीन उनके नाम नहीं है

गौर करने वाली बात यह है कि ये कोल्हू बिजली से चलाए जाते हैं. इसके लिए रामदेव ने कोई अलग व्यावसायिक कनेक्शन नहीं लिया है. कृषि कार्य के लिए सिंचाई हेतु आचार्य बालकृष्ण के नाम लिए गए कनेक्शन पर केवल 80 पैसा प्रतियूनिट की दर से बिल लिया जाता है. जबकि कोल्हू चलाने के लिए लगाए जाने वाले व्यावसायिक कनेक्शन पर चार रुपये 25 पैसा प्रतियूनिट के हिसाब से बिल वसूला जाना चाहिए था. हर दिन इस हिसाब से सरकार को हजारों रुपये के राजस्व का नुकसान हो रहा है. व्यवासायिक कार्यों से होने वाली कमाई से ही सरकार किसी गरीब किसान के घर में लगने वाले जनता कनेक्शन का एक बल्ब जलाती है. रामदेव यदि कृषि कार्य की बजाय व्यवासायिक कार्य का बिल देते तो कुछ गरीबों के घर साल भर बिजली जलती रहती.

नये जमाने के जमींदार

आजादी के बाद वर्ष 1950 में जमींदारी प्रथा को खत्म करने के मकसद से एक कानून बनाया गया था जो 1952 में पूरी तरह से लागू हुआ. असल में तब समस्या यह थी कि चंद लोगों के पास जमीनें ही जमीनें थीं जबकि बाकी भूमिहीन थे. कानून का मकसद था कि यह असंतुलन दूर हो और दलित व गरीब भूमिहीनों को भी खेती के लिए जमीन मिले. लेकिन रामदेव जो कर रहे हैं वह एक झलक है कि किस तरह वही क्रूर जमींदारी प्रथा एक नयी शक्ल में फिर से सिर उठा रही है.

महबूबन 80 साल की हैं. हरिद्वार जिले के एक गांव तेलीवाला में अपनी एक विधवा बहू और दो बेटों के परिवारों के साथ रहने वाली इस बुजुर्ग की जिंदगी की शाम दुश्वारियों में कट रही है. उनके पति अनवर और जवान बेटे अमीर बेग की मौत हो चुकी है. 14 सदस्यों वाले इस कुनबे की रोजी-रोटी किसी तरह चल ही रही थी कि कुछ साल पहले उस पर एक और मुसीबत आ गई. कई साल पहले ग्राम प्रबंध समिति ने महबूबन के भूमिहीन पति और बेटे को खेती करने के लिए गांव में 3.3 तीन बीघा सरकारी जमीन पट्टे पर दी थी. अनवर और उसके बेटे की मौत के बाद जमीन महबूबन और उनकी बहू रुखसाना के नाम पर आ गई. जमीन के कुछ हिस्से पर उन्होंने पेड़ लगा रखे थे, कुछ पर वे खेती करते थे. रुखसाना बताती हैं, ‘फसल के अलावा चरी बोकर हम एक-दो जानवर भी पाल लेते थे. बच्चों को दूध नसीब हो जाता था.’

26 दिसंबर, 2007 को हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने महबूबन और उनकी बहू रुखसाना सहित तेलीवाला गांव के अन्य 27 भूमिहीनों को दिए गए पट्टे निरस्त कर दिए. इस फैसले की वजह बताई गई कि पट्टेदार इन जमीनों पर खेती नहीं करते और उन्होंने जमीन का लगान भी जमा नहीं किया है. इस एक आदेश से निरस्त हुए भूमिहीनों के पट्टों की जमीन लगभग 100 बीघा (8,10,000 वर्ग फुट) थी.इन गरीबों के खिलाफ शिकायत गांव के ही कुछ लोगों ने की थी. शिकायत में इन पट्टेधारकों को ट्रैक्टर और जीपों का मालिक दिखाया गया था. ऊपर से देखने में इस शिकायत का मकसद भला दिख रहा था. शिकायत में मांग की गई थी, ‘पट्टे में मिली जमीन पर स्वयं खेती न करने वाले लोगों के पट्टों को निरस्त कर गांव के अन्य अनुसूचित जाति के भूमिहीनों को नये पट्टे दिए जाएं.’ तहलका को मिली जानकारियां बताती हैं कि ये शिकायतकर्ता प्रॉपर्टी डीलर थे जो तेलीवाला और उसके बगल के गांव औरंगाबाद में रामदेव के ट्रस्टों के लिए जमीनें इकट्ठा करने के काम पर लगे थे.

उपजिलाधिकारी को शिकायत मिलने के तीसरे दिन ही लेखपाल ने लगभग 100 बीघा भूमि की स्थलीय जांच की और तथ्यों की पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट दे दी कि वास्तव में इन पट्टों की जमीनों पर खेती नहीं हो रही है और ग्रामीणों ने लगान भी नहीं दिया है. पट्टों पर लगभग नौ रुपये सालाना लगान तय था. रिपोर्ट आने के दूसरे ही दिन हरिद्वार के तहसीलदार ने भी लेखपाल की जांच को सही मानते हुए इन 29 भूमिहीनों के पट्टों को निरस्त करने की आख्या उपजिलाधिकारी को भेज दी. शिकायत मिलने के नौ दिन बाद हरिद्वार के तहसीलदार की अदालत के एक निर्णय के बाद ये अभागे पट्टाधारक फिर भूमिहीन बन गए.

गौर से देखने पर यह फैसला हास्यास्पद लगता है. इनमें से हर गरीब पर उस समय सिर्फ 10 रु के लगभग लगान बकाया था. महबूबन कहती हैं, '10 रु की हैसियत आज के जमाने में होती ही क्या है? उसे तो गरीब भी कभी भी दे सकता है.’ महबूबन के अलावा गांव की ही एक और विधवा शकीला का भी पट्टा निरस्त हुआ है. शकीला और गांव के अन्य भूमिहीन अब नदी के किनारे बरसात में आई बालू पर मौसमी सब्जी उगा रहे हैं. शकीला कहती हैं, ‘गरीब लोग जमीन पर खेती नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?'
अमूमन इस तरह की शिकायतें मिलने के बाद होने वाली जांचों में महीने गुजर जाते हैं. स्थलीय निरीक्षण और दो स्तर की जांचों के बाद पट्टाधारकों की आपत्तियां सुनी जाती हैं. इस प्रक्रिया के बाद उपजिलाधिकारी के न्यायालय में न्यायिक निर्णय होता है. भारत में राजस्व न्यायालयों के निर्णय आने में सामान्यतः सालों लग जाते हैं. लेकिन इन गरीबों के मामले में सब कुछ शताब्दी एक्सप्रेस वाली रफ्तार से हो गया. पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्र सिंह कहते हैं, ‘जांच रिपोर्ट देने से पहले ग्राम सभा की खुली आम बैठक करानी थी ताकि शिकायतों की सत्यता की परख सबके सामने होती.’ सिंह आपातकाल के समय हरिद्वार में बतौर उपजिलाधिकारी सीलिंग की जमीनें भूमिहीनों को बांटने के लिए चर्चित रहे हैं. वे कहते हैं, ‘एक गरीब को फिर से भूमिहीन बनाने के दर्द का अहसास शायद इन कर्मचारियों को भी हो पर अमूमन इस तरह के निर्णय मोटे लालच या ऊपरी दबाव में होते हैं.’ हरिद्वार में ही तैनात रहे एक अन्य उपजिलाधिकारी बताते हैं कि उनके तीन साल के कार्यकाल में उनके सामने पट्टे निरस्त करने का कोई मामला नहीं आया था. वे कहते हैं, 'लगान की रकम अब इतनी कम होती है कि कोई भी गरीब उसे चुका सकता है.’तो आखिर इन 29 पट्टों को निरस्त करने के मामले में तेजी क्यों दिखाई गई? इसका जवाब तलाशने जब हम तेलीवाला गांव पहुंचे तो पता चला कि हरिद्वार के तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह निर्णय जमीनी सच्चाइयों और हकीकतों को नकारते हुए सीधा-सीधा रामदेव को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था.

इन भूमिहीन गरीबों के पट्टे निरस्त होने के केवल 15 दिन बाद 12 फरवरी, 2008 को रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण ने हरिद्वार के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पतंजलि विश्वविद्यालय और पतंजलि ट्रस्ट के लिए औरंगाबाद और तेलीवाला ग्रामसभा में 325 हेक्टेयर (4875 बीघा) सरकारी जमीन मांगी. आचार्य बालकृष्ण का कहना था कि इस जमीन का इस्तेमाल लोकोपकारी कार्यों को करने के लिए होगा. आवंटन के लिए भेजे गए प्रस्ताव में जिस भूमि की मांग की गई थी उसमें वह 100 बीघा जमीन भी शामिल थी जो भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करने के बाद फिर से सरकारी हो गई थी. प्रस्ताव में आचार्य बालकृष्ण ने इस 4875 बीघा जमीन का विस्तार से वर्णन किया है. इन भूमियों में भूमिहीनों के पट्टों की जमीन, पहाड़नुमा भूमि, चौड़े पाट वाली बरसाती नदी का हिस्सा तो था ही, गांव के पशुओं के चरने का गौचर, गांव का पनघट, श्मशान घाट और कब्रिस्तान भी था.

ट्रस्टों और स्वयंसेवी संगठनों के मामले में अक्सर देखने को मिलता है कि जब वे सरकार से जमीन मांगते हैं तो इसके पीछे की वजह जनकल्याण का कोई काम बताते हैं. बालकृष्ण ने भी बृहत स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कामों के लिए भूमि मांगते हुए औरंगाबाद गांव के अन्य 12 गरीब किसानों को पट्टों में मिली 60 बीघा भूमि को भी पतंजलि योग पीठ को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा था. ये जमीनें भी पतंजलि को तभी मिल सकती थीं जब इनके पट्टे निरस्त हो जाते. कुल मिलाकर देखा जाए तो वे सरकार से हरिद्वार जिले की दो न्याय पंचायतों- तेलीवाला और औरंगाबाद में सामूहिक उपयोग की सारी भूमि, निरस्त हुए पट्टों की भूमि और कुछ अन्य पट्टों के निरस्त होने के बाद मिलने वाली भूमि मांग रहे थे.

रामदेव की पहुंच और आचार्य बालकृष्ण के प्रबंधकीय कौशल के आगे नतमस्तक तेलीवाला गांव के तत्कालीन ग्राम प्रधान अशोक कुमार ने भी हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को जमीन आवंटित करने के लिए अपनी लिखित सहमति दे दी. प्रधान ने जिलाधिकारी को सिफारिश करते हुए लिखा कि पतंजलि योग पीठ के कामों से गांव के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध होगा.सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तारीखें बताती हैं कि जिस तेजी के साथ भूमिहीनों के पट्टे निरस्त हुए थे वही फुर्ती अधिकारी रामदेव को सरकारी जमीन आवंटित करने में भी दिखा रहे थे. बाबा को जमीन आवंटित करने के प्रस्ताव में लेखपाल और तहसीलदार की रिपोर्ट हाथों-हाथ लग गई जबकि कायदे से प्रस्ताव जिलाधिकारी को भेजने से पहले सारी जमीन का स्थलीय निरीक्षण और ग्राम सभा की आपत्तियों का निराकरण होना चाहिए. तेलीवाला विजयपाल सैनी कहते हैं, ‘सब कागजों में हो रहा था ताकि गांववालों को आवंटन की खबर न लग पाए.’ आचार्य का पत्र मिलने के एक महीने से भी कम समय में हरिद्वार के तत्कालीन जिलाधिकारी आनंद वर्द्धन ने पांच मार्च, 2008 को उत्तराखंड शासन को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को सरकारी भूमि आवंटित करने की आख्या उत्तराखंड शासन को भेज दी. जिलाधिकारी ने पतंजलि द्वारा मांगी गई जमीन की लगभग आधी (140 हेक्टेयर) जमीन आवंटित करने की संस्तुति की थी.

ताज्जुब की बात यह थी कि आचार्य बालकृष्ण ने जमीन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जनकल्याण कार्यों को करने के लिए मांगी थी जबकि जिलाधिकारी ने अपनी संस्तुति में लिखा कि प्रस्तावित जमीन पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को कृषि संबंधी अनुसंधान करने के लिए दी जानी चाहिए. जिलाधिकारी के पत्र में वर्णित आवंटन के लिए प्रस्तावित भूमि में वह 100 बीघा भूमि भी थी जो 29 भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करके ग्राम समाज में मिला दी गई थी.

इस बीच रामदेव के भूमि हड़पो अभियान की भनक गांववालों को लग गई. उन्होंने रामदेव को भूमि आवंटित करने के प्रस्ताव का शासन में जमकर विरोध किया. लेकिन बाबा के प्रभाव के आगे सरकार और उसके अधिकारी गांववालों की पीड़ा नहीं समझ रहे थे. तेलीवाला के ग्रामीण मीर आलम बताते हैं, ‘रामदेव जिस तरह टीवी पर दुनिया का भला करने का सपना दिखाते हैं उसी भाषा में सरकारी अधिकारी और छोटे राजस्व कर्मचारी गांववालों को समझा रहे थे कि बाबा को जमीन देने से गांववालों और दुनिया को क्या फायदे होंगे. इन दोनों गांवों के जागरूक लोगों ने प्रशासन को कई पत्र लिखे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. सरकार रामदेव को जमीन देने पर आमादा थी. आखिर थक-हार कर सैनी ने इस प्रस्तावित आवंटन के विरोध में नैनीताल उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी. न्यायालय ने ट्रस्ट को भूमि आवंटित करने पर रोक लगा दी. सैनी आशंका जताते हुए कहते हैं, ‘रामदेव के प्रभाव में आकर कभी भी सरकार दो गांवों की सारी जमीनें उन्हें दे सकती है.'

तेलीवाला गांव में भूमिहीनों को दी गई करीब 100 बीघा जमीनों के पट्टे आनन-फानन में निरस्त करके रामदेव के ट्रस्ट को दे दिए गए. कई मामलों में रामदेव की संस्थाओं ने जमीनें पहले ही ले लीं और सरकार से उन्हें खरीदने की अनुमति बाद में मांगी. हाल ही में रामदेव ने फिर सरकार से 125 हैक्टेयर भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. पर ज्यादातर जमीनें उन्होंने पहले से ही अपने कब्जे में ले रखी हैं

स्थगनादेश से भी महबूबन, रुखसाना और शकीला जैसी विधवाओं को न्याय नहीं मिला. इन 29 पट्टाधारकों में से करीब आधों ने कमिश्नर के राजस्व न्यायालय में अपील करके अपनी जमीन पर कब्जा बना कर रखा है. परंतु विधवाओं और गरीबों को न तो कानून की समझ थी और न ही न्यायालय तक जाने की हिम्मत. इसलिए आधे गरीबों की जमीनें सरकारी हो गईं जिन पर रामदेव के लोगों ने कब्जा कर लिया है. तेलीवाला के मीर आलम का आरोप है कि इन विधवाओं के अलावा गांव के कुछ और भूमिहीन किसानों की भूमियां भी बाबा के कब्जे में हैं. कब्जा की गई ये जमीनें दरअसल रामदेव द्वारा खरीदी गई सैकड़ों बीघा जमीनों के बीच में या पास में पड़ती हैं. विजयपाल सैनी का आरोप है कि बाबा इन दोनों गांवों की एक-एक इंच जमीन खरीद कर या आवंटित करा कर अपनी सल्तनत कायम करना चाहते थे. वे कहते हैं, ‘इस मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने भूमाफियाओं, राजस्व कर्मचारियों और अपने राजनीतिक सरपरस्तों का गठबंधन बना रखा था. वह गठबंधन गांव में गरीबों की जमीन को लालच दे कर अपने पक्ष में कराने की हर कानूनी तिकड़म जानता था. बाबा का साथ दे रहे गांव के ये लोग गरीबों को धमका कर गैरकानूनी तरीकों से भी जमीनों को हड़पने की दबंगई भी रखते थे.’

शांतरशाह नगर, बहेड़ी राजपूताना और बोंगला में भी अनुसूचित जाति के किसानों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन किया गया. तहलका ने बाबा के ट्रस्टों द्वारा खरीदी गई भूमियों में से एक (खाता संख्या 120) की गहनता से जांच की तो पाया कि रामदेव ने जमीनों को खरीदने के लिए कानून के उन्हीं छेदों का सहारा लिया है जिनका इस्तेमाल भूमाफिया अनुसूचित जाति के गरीब किसानों की जमीन छीनने में करते हैं. बढेड़ी राजपूतान गांव निवासी कल्लू के चार पुत्रों में से तीन ने वर्ष 2007 से लेकर 2009 के बीच जमीन को बंधक रख बैंक से ऋण लेना दिखाया है. बाद में ऋण अदायगी के नाम पर अनुसूचित जाति के इन किसानों को भूमि बेचने की इजाजत उपजिलाधिकारी से दिलाई गयी और इस भूमि को पतंजलि योगपीठ ने ले लिया. अब ये परिवार भूमिहीन हैं.

पट्टे में मिली खेती की तीन बीघा जमीन पर बाबा के लोगों द्वारा कब्जा करने के बाद शकीला अब अपने बेटे गुलजार के साथ नदी की रेत में पसीना बहा कर किसी तरह दो जून की रोटी का इंतजाम करेगी. आचार्य बालकृष्ण ने सरकार को इस नदी को भी उनके ट्रस्ट को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा है. फिर भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. हाल ही में रामदेव ने फिर उत्तराखंड सरकार से हरिद्वार जिले के तेलीवाला, औरंगाबाद, हजारा ग्रांट, अन्यगी आदि गांवों में 125 हेक्टेयर (1875 बीघा) भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. वास्तव में ये जमीनें बाबा ने अपने लिए इकट्ठा करवा कर कब्जे में ले रखी हैं. अब उन्हें खरीद का वैधानिक रूप देना है. इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के किसानों की हैं जो बाबा को जमीन बेच कर एक बार फिर भूमिहीन हो गए हैं. बाबा के ट्रस्टों के भू-विस्तार अभियान से भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं. शकीला के पास टीवी भी तो नहीं है. कम से कम वह उस पर रोज आ रहे बाबा रामदेव के प्रवचनों को सुन कर यह संतोष तो कर लेती कि उसकी थोड़ी-सी जमीन काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ किए जा रहे बाबा के संघर्ष में कुर्बान हुई है


तहलका के सौजन्य से...

Friday, November 25, 2011

मायावती का 'फरार' मंत्री


वे सिर्फ राज्य में ताकतवर कैबिनेट मंत्री के पद पर आसीन हैं बल्कि उत्तर प्रदेश में मायावती पार्टी तंत्र को संचालित करने के लिए भी उनसे विश्वसनीय किसी व्यक्ति को नहीं मानती. नित्य प्रति वे सत्ता के गलियारों में देखे जाते हैं, पुलिस और प्रशासन उन्हें सलाम बजाकर उनका हुक्म लेती है. लेकिन अदालत का रिकार्ड यह कह रहा है कि पुलिस और प्रशासन जिस व्यक्ति को सुबह शाम सलाम बजा रही है वह एक फरार मुजरिम है जिसे अभी अदालत में हाजिर होना है. पिछले चौबीस सालों से अदालत का एक फरमान इस कैबिनेट मंत्री का पीछा कर रहा है और प्रदेश की पुलिस को स्वामी प्रसाद मौर्य ढूंढे नहीं मिल रहे हैं.

मायावती के कथित कानून के राज का इससे बड़ा सच और क्या होगा कि उनकी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष एवं माया के अति विश्वसनीय कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्या रायबरेली की एक अदालत से पिछले चौबीस सालों से फरार हैं और मायावती सरकार की जांबाज पुलिस प्रशासन प्रदेश बसपा अध्यक्ष एवं कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को कौन कहे उनकी परछाई तक को नहीं ढूँढ़ पा रहा है। बावजूद इसके सूबे की मुखिया मायावती का मायावी दावा जारी है - ‘कानून के जरिए कानून का राज - सूबे में कानून व्यवस्था हर हाल में ......।

जी हाँ - यही कड़वी सच्चाई है - उत्तर प्रदेश की सरजमी पर मायावती के कानून के राज की ! साक्ष्यों के अनुसार - आज से ठीक चौबीस वर्ष पूर्व 30 जून 1987 को रायबरेली जनपद के थाना - डालमऊ में अग्निशमन केन्द्र के प्रधान आरक्षी रामसूरत उपाध्याय ने अपराध संख्या 110/1987 धारा 147, 148, 149, 307, 323, 332, 353, 336 एवं 427 के तहत सरकार बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य व अन्य के विरुद्ध आपराधिक मुकदमा दर्ज कराया गया था।

1987 में जनपद रायबरेली के थाना-डालमऊ में दर्ज उपरोक्त आपराधिक मुकदमा आज चौबीस वर्ष बाद भी जूडीशियज मजिस्ट्रेट-प्रथम रायबरेली के न्यायालय में वाद संख्या 831/2006 विचाराधीन है। साक्ष्यों के अनुसार जूडीशियल मजिस्ट्रेट-प्रथम के न्यायालय से जारी गैर जमानती वारंट पर जिला न्यायालय से जारी गैर जमानती वारंट पर जिला न्यायालय से निराश होकर स्वामी प्रसाद मौर्य ने अंततः उच्च न्यायालय में गैर जमानती वारंट के क्रियान्वयन पर रोक लगाने हेतु याचिका दायर कर दी। 26 फरवरी 2009 को उच्च न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई के उपरान्त याचिका को न सिर्फ खारिज ही कर दिया बल्कि याची/अभियुक्त स्वामी प्रसाद मौर्य को अपने आदेश में निर्देशित भी किया है कि - याची/अभियुक्त स्वामी प्रसाद मौर्य 03 मार्च 2009 को अधीनस्थ न्यायालय में उपस्थित हों। बावजूद इसके उच्च न्यायालय के उक्त आदेश को जारी हुए करीब सत्ताइस महीने गुजर गए लेकिन मायावती मंत्रीमण्डल का यह गैर जमानती वारंट धारी कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने आज तक रायबरेली के सम्बन्धित कोर्ट में उपस्थित होने की जहमत नहीं उठाई है।

न्यायालय से फरार गैर जमानती वारंटधारी अभियुक्त न सिर्फ सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष ही है बल्कि, सूबे की मुखिया मायावती के नाक का बाल, अतिविश्वसनीय कैबिनेट मंत्री भी है, बावजूद इसके उस उत्तर प्रदेश की कथित जाबांज पुलिस को जिसके विषय में यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश पुलिस दस साल पहले मर चुके मुर्दे से भी गवाही दिलाने की कूबत रखती हैं। इस प्रदेश की पुलिस यह भी सिद्ध कर सकने में सक्षम है कि - मृतक व्यक्ति ने बल्ब के होल्डर में फाँसी का फन्दा लगाकर आत्महत्या कर ली है। इस सूबे की किसी छोटी-मोटी धारा में भी उसका जीना मुहाल कर सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता मनवीर सिंह तेवतिया को भी खूँखार अपराधी करार देते हुए उस पर 50,000/- रुपये का इनाम घोषित कर सकती है, लेकिन अपनी उपरोक्त जाबांजी के बावजूद भी उसे न्यायालय से फरार गैर जमानती वारंट धारी लालबत्ती पर सवार अभियुक्त स्वामी प्रसाद मौर्य का कहीं अता-पता नहीं लग पा रहा है।

कहना गलत न होगा कि, लखनऊ से लेकर रायबरेली तक की पुलिस की इस चाटुकारिता से खिन्न होकर ही रायबरेली समाजवादी पार्टी के जिला अध्यक्ष ओ0 पी0 यादव ने पिछले दिनों उपरोक्त प्रकरण पर लिखित रूप से प्रदेश पुलिस के मुखिया कर्मवीर सिंह, मुख्य सचिव गृह एवं प्रधानमंत्री तक को अवगत कराते हुए एलान किया था कि अब रायबरेली आने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य यदि पेशी के दिन न्यायालय में उपस्थित नहीं हुए तो स्थानीय जनता ही अभियुक्त स्वामी प्रसाद मौर्य को जबरिया पकड़कर न्यायालय को सौंप देगी। बताया जाता है कि अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में अभियुक्त मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य आए तो जरूर लेकिन सपा नेता ओ0 पी0 यादव के ऐलान से रायबरेली पुलिस कुछ इस भयभीत थी कि - जब तक स्वामी प्रसाद मौर्य जिले की सीमा में मौजूद रहे तब तक उनके इर्द-गिर्द पुलिस छावनी ही बनी रही। अंततः स्वामी प्रसाद मौर्य अपने सरकारी कार्यक्रमों को निपटा कर एक बार फिर रायबरेली अपने सरकारी कार्यक्रमों को निपटा कर एक बार फिर रायबरेली न्यायपालिका को अंगूठा दिखाते हुए लालबत्ती से दनदनाते हुए निकल भागने में कामयाब हो गए। अब रायबरेली पुलिस एक बार फिर अभियुक्त स्वामी प्रसाद मौर्य को ढूँढ़ निकालनें में पूरी जी-जान से जुट गई है।

Thursday, November 24, 2011

दलित की मौत पर सियासत


रायबरेली में पुलिस की पिटाई से दलित रामचंदर की मौत क्या हुई मीडिया से लेकर गांव वालों ने उसका अपने अपने तरीके से पोस्ट मार्टम शुरू कर दिया , और मीडिया के पोस्ट मार्टम करते ही राजनीतिज्ञों के चेहरों की चमक बढ़ गयी मानों उन्हें इलेक्शन जीतने का पूरा मौका गरीब की मौत ही दे गया ,, और शुरू हो गयी लाश पर राजनीती ..
जरा सोचकर देखिये क्या ये वही उत्तर प्रदेश की पुलिस है जहाँ प्रशासन ने पुलिस बल में करीब साढ़े पाँच हजार सब इन्सपेक्टरों (एसआई) की खाली जगह को भरने के लिए महकमें के हेड कांस्टेबिलों को अपने सिपाहियों की चुस्ती फुर्ती आंकने के लिए फुर्ती टेस्ट करने का आदेश दिया था लेकिन पुलिस के इस फरमान से उत्तर प्रदेश के सुरक्षा दस्ते की जो हकीकत निकलकर सामने आई है वह न केवल पुलिस महकमे को बल्कि पूरे प्रदेश को शर्मसार करने के लिए काफी है. वरिष्ठ अधिकारियों की इस नादिरशाही फरमान से एक महीने के भीतर ही सौ से ज्यादा दीवान जी (हेड कांस्टेबल) गंभीर रूप से बीमार पड़ गये और अस्पताल के बिस्तर पर पहुच चुके हैं। तो वहीं करीब 6 से ज्यादा दीवान अ-समय ही काल के गाल में समा चुके हैं। पर समय समय पर इनका चेहरा भी बदलता रहता है, उत्तर प्रदेश में विशेषकर मायावती के मायावी शासनकाल में प्रदेश के कथित तेज-तर्रार खाकीवर्दीधारी पुलिसिया रणबांकुरों के कृत्यों-कु-कृत्यों का तो रायबरेली की घटना नमूना मात्र है, अब जरा रामचन्द्र का कसूर सुन लीजिये उसके बेटे दिलीप ने बबिता नाम की लड़की से शादी कर ली थी जिसमे विरोध और पारिवारिक उलझनों के चलते अलग अलग रहने की नौबत आ गयी थी लिहाजा आज की तारिख में दोनों अलग अलग रहते थे और बबिता की और से जीविकोपार्जन का मुकदमा दर्ज करवा दिया गया था.. चुकी दोनों डेल्ही में रहते थे और मुकदमा भी वही पंजीकृत था लिहाजा वारंटी दिलीप की गिरफ्तारी के बाद उसको पेशी पर खाखी के साये में डेल्ही ले जाया जाता था .. अपनी लापरवाही के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश की पुलिस के चंगुल से हरदोई के रेलवे स्टेशन से दिलीप 21 अक्टूबर को फरार हो गया , फिर क्या था शुरू हो गया खाकी वर्दीधारी इन रणबांकुरों का कारनामा, वो खाकी जिसे किसी भी सभ्रान्त व्यक्ति के घर में अपराधियों की तरह आधीरात में घुसनें में न तो शर्म आती है और न ही इन्हें निमय-कानूनों का डर ही लगता है। क्योंकि इनके सत्ताधारी माई-बाप इनकी हिफाजत के लिए ऊपर जो बैठे हैं दिलीप के पैतृक आवास पर रायबरेली पुलिस प्रशासन नें नंगनाच का जो शर्मनाक प्रदर्शन किया है वह किसी भी सभ्यसमाज को शर्मशार कर देनें के लिए पर्याप्त हैं। आधीरात में दर्जन भर से ज्यादा पुलिस कर्मी सरकारी गाड़ी से सायरन बजाते हुए महिला SHO रंजना सचान के नेतृत्व में रामचंदर के आवास पर पहुँची तथा घर का दरवाजा पीटनें लगी। उस समय घर के अंदर एक पचपन वर्षीय लाचार बुजुर्ग एवं उसकी पत्नी सावित्री ही घर में थी। दिलीप के बारे मौजूद न होनें की बात बताते हुए दरवाजा खोलने से इंकार दिया गया तो इन पुलिसिया रणबांकुरो नें अपनें जौहर का शर्मनाक प्रदर्शन करते हुए घर के पीछे से छत के रस्ते न सिर्फ अंदर ही घुस गए बल्कि महिला के साथ घण्टो तक अभद्रता करते हुए घर का सारा सामान विखरा कर कथित रूप से घर में छुपे हुए दिलीप की तलाश करते रहे। घर में दो के अलावा तीसरा कोई था ही नहीं तो फिर मिलता कौन? अन्त में अपनी इस कथित शर्मनाक बहादुरी का परचम लहराते हुए खाकी वर्दी के रणबांकुर वहाँ से रामचंदर को साथ लेकर प्रस्थान कर गए। रामचंद्र की थाने में जमकर आवभगत हुई करंट लगाने से लेकर गुप्तांग तक में चोट करने से नहीं चुकी महिला SHO ने बेशर्मी और मानवता को बहुत पीछे छोड़ दिया , दरोगा यदि सत्ता में ऊंची पहुच का हो तो कान बंद होना स्वाभाविक है वो चीखता रहा और ये पीटती रही नतीजा जुल्म न सह पाने के कारण रामचंद्र मौत के मुह में समां गया.. रोजन अपने इर्द गिर्द इस तरह की पुलिसिंग से परेशान रामचंद्र के गांव वालों ने लाश को जिलाधिकारी के आफिस के सामने रख़ कर खूब हंगामा काटा नतीजा ये हुआ की SHO रंजना सचान को लाइन हाजिर कर के उन पर ( 304 IPC ) गैर इरादतन हत्या के मामले में मुकदमा दर्ज कर लिया गया .. और जाँच की बात की गयी किन्तु पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट में जब चोट की पुष्टि नहीं हुई तो लोगो को इस भ्रष्ट सिस्टम पर खूब गुस्सा आया और बात हरिजन योग के अध्यक्ष पी. एल. पुनिया के सामने पहुची प्रदेश की BSP सरकार से नाराज कांग्रेसी सांसद और अध्यक्ष पुनिया तत्काल लावलश्कर के साथ मौके पर पहुचे और दुबारा पोस्ट परतम के लिए कह कर चले गए , लेकिन 80 प्रतिशत से ज्यादा सड़ चुकी रामचंदर की लाश में दुबारा भी डाक्टरों की टीम कुछ नहीं दूंद पाई और मामला ज्यों का त्यों बना रह गया .. हा इस बीच रायबरेली की जिलाधिकारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए छुट्टी के दिन दफ्तर खुलवाकर पीड़ित को 1,50 ,000 की चेक तहसीलदार के हाथ से भिजवाकर मरहम लगाने की कोशिश जरूर की.. वही राजनीतिक पार्टियों ने रामचंदर को न्याय के नाम पर साथ में फोटो खिचवा कर अपनी रोटिया सेकना शुरू कर दी हैं.. दरअसल मायावती शासनकाल में पुलिस हिरासत में हुई मौतों को ‘आत्महत्या’ में बदलनें में शायद प्रशासन को महारत हासिल है। उत्तर प्रदेश की पुलिस का ही यह कमाल है कि - जब ये पायजामें के नाडे़ और लॉकअप में लगे बल्ब के होल्डर से फाँसी लगवानें के साथ-साथ दस साल पहले मर चुके व्यक्ति से फर्जी हरिजन ऐक्ट के मुकदमें में गवाही दिलवा सकते हैं तो फिर लाकआप में पिटाई करते समय इन्हें किसका भय रहा होगा । उत्तर प्रदेश पुलिस न सिर्फ रस्सी को साँप साबित कर देने में माहिर है बल्कि वह जायज काम को नाजायज एवं नाजायज काम को जायज साबित करनें में पूरी तरह सिद्धहस्त है। ऐसे में ये हाल तब है जब प्रदेश की कमान एक दलित मुख्यमंत्री के हाथ में है , रामचंदर के परिवार को न्याय मिल पायेगा इसकी कल्पना करना भी मुमकिन नहीं है और अगर समाज सेवियों , मीडिया कर्मियों, खद्दर धारियों के निरंतर प्रयास से इस परिवार को न्याय मिल भी गया तो क्या इस ह्रदय विदारक घटना से इंसानियत पर जो दाग लगे हैं वो कभी धुल पाएंगे ??

बच्चन की चौथी पीढ़ी तक के उतार चढाव

गंगा यमुना का संगम होने के कारण यह एक तीर्थ क्षेत्र है तो अपने विश्वविद्यालय और हाई कोर्ट के कारण भी लाखों लोगों का जुड़ाव उस नगर से रहा है। फिराक, निराला, पंत, महादेवी, उपेन्द्र नाथ अश्क से लेकर बाद की साहित्यिक दुनिया को संचालित करने वाले, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नन्दन, रवीन्द्र कालिया जैसे सम्पादकों का क्रीड़ांगन भी इलाहाबाद ही रहा है। इसी क्षेत्र से निकले हरिवंशराय बच्चन ने उमर खैय्याम की रुबाइयों की तरह मधुशाला रच कर न केवल नया इतिहास रच डाला अपितु हिन्दी कवि सम्मेलनों की नींव भी डाली। इससे पूर्व हिन्दी में केवल गोष्ठियां ही हुआ करती थीं जबकि उर्दू वाले मुशायरे करते थे जो व्यापक श्रोता समुदाय को आकर्षित करते थे। बच्चन की मधुशाला ने अपनी विषय वस्तु से ही एक नया इतिहास रच डाला और खुले आम एक वर्जित वस्तु को विषय बनाकर अपनी बात कही जिसे हिन्दीभाषी समाज में एक सामाजिक विद्रोह भी कह सकते हैं। उर्दू ने यह काम बहुत पहले ही कर दिया था और वे इससे कठमुल्लों को खिजाते रहते थे। उसी तर्ज पर बच्चन की मधुशाला लोकप्रिय हुयी और उसके सहारे कवि सम्मेलनों को भी लोकप्रियता मिलने लगी। उस दौरान लन्दन में पढे अंग्रेजी के प्रोफेसर डा. बच्चन, तेजी जी से प्रेम विवाह करके भी चर्चित हो चुके थे। यह वह दौर था जब प्रेम विवाह को समाज में एक बड़ी घटना की तरह लिया जाता था।

तेजी बच्चन इन्दिरा गान्धी की मित्र थीं और इसी तरह बच्चन जी के पुत्र अमिताभ को भी इन्दिरा गान्धी के पुत्र राजीव गान्धी से मित्रता का अवसर मिला। इन्हीं सम्पर्कों के अतिरिक्त बल के कारण डा. बच्चन राज्य सभा के लिए बिना किसी निजी प्रयास के नामित हुये थे और इस तरह वे देश के सबसे महत्वपूर्ण परिवार के सबसे निकट थे। जब राजीव गान्धी की शादी हुयी थी तब लड़की वालों अर्थात सोनिया के परिवार का निवास बच्चन जी का घर बना था व तेजी बच्चन ने दुल्हिन सोनिया गान्धी के हाथों पर मेंहदी लगाने की रस्म निभायी थी। कुछ समय कलकत्ते में नौकरी करने के बाद अमिताभ लोकप्रियता से दौलत कमाने के लिए मह्शूर फिल्मी दुनिया में आ गये तथा प्रारम्भिक फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल न होने के बाद भी जमे रहे, क्योंकि उनके पास लोकप्रियता की पृष्ठभूमि थी। इसी के भरोसे वे न केवल अभिनय कला में निरंतर निखार लाने के प्रयोग कर सके जिसमें वे सफल भी हुए। इन्दिरा गान्धी और राजीव गान्धी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान उनके मार्ग की बाधाएं स्वयं ही हट जाती थीं भले ही उन्होंने कभी कोई आग्रह न किया हो। पुराने कलाकारों के परिदृष्य से बाहर होने और समकालीनों के पिछड़ने के कारण वे उद्योग के बेताज बादशाह बन गये। रंगीन टीवी और नई आर्थिक नीति से बाजारवाद आने के बाद उनकी लोकप्रियता के लिए अनेक अवसर खुल गये और वे अपनी लोकप्रियता के सहारे तेल से लेकर ट्रैक्टर तक सब कुछ बिकवाने लगे। यहाँ तक कि एक समय राजीव गान्धी ने भी अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने में उनकी लोकप्रियता को भुनाया था। जब राजीव गान्धी परिवार से उनका मनमुटाव हुआ तो उन्हें अमर सिंह मिल गये जिन्होंने एक दूसरे राजनीतिक पक्ष से उनका सौदा करा दिया। इससे कभी कांग्रेस के सांसद रहे परिवार में न केवल उनकी अभिनेत्री पत्नी जया भादुड़ी को समाजवादी सांसद बनने का मौका मिला अपितु उन पर इनकम टैक्स का नोटिस निकालने पर इनकम टैक्स दफ्तर में तोड़फोड़ करने वाली टोली भी मिल गयी। बाद में उन्होंने 2002 में मुसलमानों के नरसंहार के लिए कुख्यात नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार का ब्रांड एम्बेसडर बनना भी स्वीकार कर लिया।

इसी लोकप्रियता के बीच उनके पुत्र को अपेक्षाकृत कम योग्यता के बाद भी फिल्मों में स्थान मिला जिसके लिए बच्चन परिवार ने अपने समय की एक प्रतिभाशालिनी सुन्दर नायिका और विज्ञापनों की मँहगी माडल का चुनाव किया जो न केवल उनके पुत्र से अधिक लोकप्रय थी अपितु उम्र में भी दो साल बड़ी थी। इस प्रकार यह परिवार देश में सबसे अधिक विज्ञापन फिल्में करके धन अर्जित करने वाला परिवार भी बन गया। हमारे देश में फिल्में खूब देखी जाती हैं और यह एक बड़ा उद्योग है। फिल्मी पत्रकारिता के स्वतंत्र अस्तित्व के साथ साथ सभी अखबारों में फिल्मों के लिए स्थान निश्चित रहता है और इस जगह को खबरों की भी जरूरत रहती है। जब खबरें नहीं मिलतीं तो खबरें पैदा की जाती हैं। मीडिया के बाहुल्य ने उनके अन्दर प्रतियोगिता पैदा की है और इस प्रतियोगिता ने खबरों को और और चटखारेदार बना कर पेश करने की अनैतिकता को जन्म दिया है। कई बार तो कम चर्चित फिल्मी अभिनेता भी चर्चा में बने रहने के लिए ऐसी खबरों को हवा देते हैं। अभिषेक की शादी से लेकर उसके घर में शिशु जन्म तक इन मीडियावालों ने कई बार अपनी कल्पनाशीलता से खबरें गढी भी हैं। व्यावसायिक हित में खबरों का गढा जाना एक बड़ी सामाजिक बीमारी का ही हिस्सा है जिसमें नई आर्थिक नीति से लेकर लोकप्रियतावाद तक जिम्मेवार है। इस बार शिशु जन्म के समय न केवल अमिताभ को ही मीडिया से अपने ऊपर लगाम लगाने को कहना पड़ा अपितु मीडिया की संस्थाओं ने भी आलोचनाओं से घबरा कर आत्म नियंत्रण की अपील की। 


लड़कियों की घटती संख्या को देखते हुए देश में उनके अनुपात को बनाये रखने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन के सहयोग से अनेक कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं जिनके द्वारा बेटी बचाओ की इतनी सारी अपीलें की जा रही हैं कि बेटी के जन्म को प्रीतिकर दर्शाना पड़ता है। बच्चन परिवार ने भी यही किया किंतु दूसरे संकेत कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि अमिताभ-जया ने अपनी बेटी को फिल्मों से दूर रखा है और उसे फिल्मी जगत से अलग एक उच्च औद्योगिक घराने में पारम्परिक ढंग से व्याहा है। पिछले दिनों हमारे समाज में वंशवृक्ष की जगह वंश को अधिक महत्व दिया जाने लगा जबकि वंशवृक्ष तो लड़कियों और उनकी संतानों से भी बढता है। अमिताभ की लड़की के जब बच्चे हुए तब न तो उनके द्वारा अपने पूज्य पिता को याद किये जाने की खबरें आयी थीं और न ही माँ को याद करने की। पर जब उनके पुत्र के घर शिशु जन्म हुआ तो वे खुशी खुशी सबको याद करने लगे। अभिषेक की नानी ने भी कहा कि हमने तो पहले ही कहा था कि लक्ष्मी आयेगी। उन्हें भी आम आदमी की तरह पुत्री के जन्म के हीनता बोध को लक्ष्मी के आने से से पूरी करने का विचार आया, सरस्वती आने का विचार नहीं आया जबकि कलाकारों के परिवारों को तो सरस्वती की कल्पना करना चाहिए थी। एक लोकप्रिय फिल्मी परिवार में किसी को बहुत दिनों तक छुपा कर नहीं रखा जा सकता किंतु जिज्ञासाएं बढा कर महत्व बढाया जा सकता है। ब्रांड बन गये परिवार में इसका भी महत्व होता है।

Monday, October 31, 2011

इंदिरा गांधी की हत्या का पूरा सच…आंखों देखी!

27 साल पहले वक्त ठहर गया था। देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके ही घर में गोलियों से भून दिया गया। पूरे देश को हिला देने वाली इस वारदात को कुछ लोगों ने अपनी आंखों से देखा। आईबीएन-7 उन्हीं लोगों की जुबानी सामने ला रहा है 31 अक्टूबर 1984 का पूरा सच

उड़ीसा में जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद इंदिरा गांधी 30 अक्टूबर की शाम दिल्ली पहुंची थीं। आमतौर पर जब वो दिल्ली में रहती थीं तो उनके घर एक सफदरजंग रोड पर जनता दरबार लगाया जाता था। लेकिन ये भी एक अघोषित नियम था कि अगर इंदिरा दूसरे शहर के दौरे से देर शाम घर पहुंचेंगी तो अगले दिन जनता दरबार नहीं होगा। 30 तारीख की शाम को भी इंदिरा से कहा गया कि वो अगले दिन सुबह के कार्यक्रम रद्द कर दें। लेकिन इंदिरा ने मना कर दिया। वो आइरिश फिल्म डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव को मुलाकात का वक्त दे चुकी थीं।

एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट बताते हैं कि जैसे एक नॉर्मल तरीका होता है। सुबह उठकर आप जनता से मिलते हैं तो उस दिन एक बिजी शिड्यूल था। उनके इंटरव्यू के लिए बाहर से एक टीम आई हुई थी। पीटर उस्तीनोव आए। उन लोगों ने अपना सर्वे किया। ये देखा कि खुली जगह पर इंटरव्यू करना चाहिए। वहां दीवाली के पटाखे पड़े हुए थे। उसको साफ-वाफ करवा कर वैसा इंतजाम करवाया गया तो उसमें कुछ वक्त लग रहा था।

दरअसल पीटर इंदिरा गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। इस बीच सुबह के आठ बजे इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन एक सफदरजंग रोड पहुंच चुके थे। धवन जब इंदिरा गांधी के कमरे में गए तो वो अपना मेकअप करा रही थीं। इंदिरा ने पलटकर उन्हें देखा। दीवाली के पटाखों को लेकर थोड़ी नाराजगी भी दिखाई और फिर अपना मेकअप पूरा कराने में लग गईं।

अब तक घड़ी ने 9 बजा दिए थे। लॉन भी साफ हो चुका था और इंटरव्यू के लिए सारी तैयारियां भी पूरी थीं। चंद मिनटों में ही इंदिरा एक अकबर रोड की तरफ चल पड़ीं। यहीं पर पेंट्री के पास मौजूद था हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह। नारायण सिंह की ड्यूटी आइसोलेशन कैडर में होती थी। साढ़े सात से लेकर 8.45 तक पोर्च में ड्यूटी करने के बाद वो कुछ देर पहले ही पेंट्री के पास आकर खड़ा हुआ था। इंदिरा को सामने से आते देख उसने अपनी घड़ी देखी। वक्त हुआ था 9 बजकर 05 मिनट। आर के धवन भी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। दूरी करीब तीन से चार फीट रही होगी। तभी वहां से एक वेटर गुजरा। उसके हाथ में एक कप और प्लेट थी। वेटर को देखकर इंदिरा थोड़ा ठिठकीं। पूछा कि ये कहां लेकर जा रहे हो। उसने जवाब दिया इंटरव्यू के दौरान आइरिश डायरेक्टर एक-टी सेट टेबल पर रखना चाहते हैं। इंदिरा ने उस वेटर को तुरंत कोई दूसरा और अच्छा टी-सेट लेकर आने को कहा। ये कहते हुए ही इंदिरा आगे की ओर बढ़ चलीं। ड्यूटी पर तैनात हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह के साथ छाता लेकर उनके साथ हो लिया।

तेज कदमों से चलते हुए इंदिरा उस गेट से करीब 11 फीट दूर पहुंच गई थीं जो एक सफदरजंग रोड को एक अकबर रोड से जोड़ता है। नारायण सिंह ने देखा कि गेट के पास सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह तैनात था। ठीक बगल में बने संतरी बूथ में कॉन्सटेबल सतवंत सिंह अपनी स्टेनगन के साथ मुस्तैद खड़ा था।

आगे बढ़ते हुए इंदिरा गांधी संतरी बूथ के पास पहुंची। बेअंत और सतवंत को हाथ जोड़ते हुए इंदिरा ने खुद कहा-नमस्ते। उन्होंने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता लेकिन बेअंत सिंह ने अचानक अपने दाईं तरफ से .38 बोर की सरकारी रिवॉल्वर निकाली और इंदिरा गांधी पर एक गोली दाग दी। आसपास के लोग भौचक्के रह गए। सेकेंड के अंतर में बेअंत सिंह ने दो और गोलियां इंदिरा के पेट में उतार दीं। तीन गोलियों ने इंदिरा गांधी को जमीन पर झुका दिया। उनके मुंह से एक ही बात निकली-ये क्या कर रहे हो। इस बात का भी बेअंत ने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता।

लेकिन तभी संतरी बूथ पर खड़े सतवंत की स्टेनगन भी इंदिरा गांधी की तरफ घूम गई। जमीन पर नीचे गिरती हुई इंदिरा गांधी पर कॉन्सटेबल सतवंत सिंह ने एक के बाद एक गोलियां दागनी शुरु कीं। लगभग हर सेकेंड के साथ एक गोली। एक मिनट से कम वक्त में सतवंत ने अपनी स्टेन गन की पूरी मैगजीन इंदिरा गांधी पर खाली कर दी। स्टेनगन की तीस गोलियों ने इंदिरा के शरीर को भूनकर रख दिया।

आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त भी मैं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था। इंदिरा जी भी नीचे देख रही थीं। मैं भी नीचे देखकर चल रहा था। बात कर रहे थे। जैसे ही सिर उठाया तो देखा बेअंत सिंह जो गेट पर था उसने अपनी रिवॉल्वर से गोलियां चलानी शुरू कर दीं। गोलियां चलनी शुरू हुईं तो इंदिरा जी उसी वक्त जमीन पर गिर गईं। तभी सतवंत सिंह ने गोलियों की बौझार शुरु कर दी। जब वो दृश्य मेरे सामने आता है तो दिमाग पागल हो जाता है।

पीएम के लिए ऐंबुलेंस तक नहीं मिली

हेड कान्सटेबल नारायण सिंह हो या आर के धवन। सब हक्के-बक्के थे। वक्त जैसे थम गया था। दिमाग में खून जमने जैसी हालत थी। तभी बेअंत सिंह ने आर के धवन की ओर देखकर कहा- हमें जो करना था वो हमने कर लिया। अब तुम जो करना चाहो, वो करो। वहां मौजूद सभी लोग एक झटके के साथ होश में आए।

आर के धवन के मन में एक ही बात आई। इंदिरा को जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाया जाए। वो जोर से चीखे-एंबुलेंस।

उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। पास में खड़े एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट ने तुरंत बेअंत और सतवंत को काबू में ले लिया। उनके हथियार जमीन पर गिर गए। उन्हें तुरंत पास के कमरे में ले जाया गया। एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट कहते हैं कि उस वक्त जो हो सकता था किया गया लेकिन चूंकि वो इतना अचानक और अनएक्सपेक्टेड और डिवास्टेटिंग था कि उसको रिकॉल करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।

अब तक छाता लेकर भौचक्क खड़ा रहा हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह भी हरकत में आया। उसने छाता फेंका और डॉक्टर को बुलाने के लिए दौड़ पड़ा। एक अकबर रोड के लॉन में इंदिरा का इंतजार करते हुए आइरिश डेलिगेशन को फायरिंग की आवाज अजीब सी लगी। फिर उन्हें लगा कि शायद एक बार फिर दीवाली के पटाखे फोड़े गए हैं। डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव वहीं पर इंदिरा का इंतजार करते रहे।

इधर आर के धवन ने इंदिरा को उठाने की कोशिश की। तभी बुरी तरह घबराई हुईं सोनिया गांधी भी वहां पहुंच गईं। तब तक कई दूसरे सुरक्षाकर्मी भी उस गेट के पास पहुंच चुके थे। धवन और सोनिया ने मिलकर इंदिरा को उठाया। आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त तो यही दिमाग काम किया कि उनको एकदम से हॉस्पिटल ले जाया जाए। मैंने उस वक्त एक एंबुलेंस जो वहां रहती थी उसे बुलाया लेकिन एंबुलेंस नहीं आई। पता चला उसका ड्राइवर चाय पीने गया हुआ था।

एंबुलेंस के पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए सोनिया-आर के धवन और बाकी सुरक्षाकर्मी इंदिरा गांधी को लेकर एक सफेद एंबेसेडर कार तक पहुंच गए। तय हुआ कि कार से ही इंदिरा को एम्स लेकर जाया जाए। इंदिरा गांधी का सिर सोनिया ने अपनी गोद में रखा। उनके शरीर से लगातार खून बह रहा था।

इस बीच उस कमरे से एक बार फिर फायरिंग की आवाज आई जिसमें सुरक्षाकर्मी बेअंत और सतवंत को लेकर गए थे। यहां बेअंत ने एक बार फिर हमला करने की कोशिश की थी। उसने अपनी पगड़ी में छिपाए चाकू को बाहर निकाल लिया। बेअंत और सतवंत दोनों ने इस कमरे से भागने की कोशिश की लेकिन जवाबी कार्रवाई में सुरक्षाकर्मियों ने बेअंत को वहीं ढेर कर दिया। सतवंत को भी 12 गोलियां लगीं लेकिन उसकी सांसें चल रही थीं।

गोलियों का शोर थमा तो एक और शोर शुरू हुआ। उस सफेद एंबेसेडर के स्टार्ट होने की आवाज जिसमें इंदिरा गांधी को लिटाया गया था। सोनिया एक टक इंदिरा की तरफ देख रही थीं। दूर खड़े आयरिश फिल्म मेकर पीटर उस्तीनोव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। सुरक्षाकर्मी तेजी के साथ एक तरफ से दूसरी तरफ भाग रहे थे। लॉन में हड़कंप मचा हुआ था। पीटर उस्तीनोव ने एक इंटरव्यू में कहा है-उस वक्त एक अकबर रोड की चिड़ियां और गिलहरियां भी अजीब बर्ताव कर रही थीं। सात मिनट के अंतर पर दो बार फायरिंग की जोरदार आवाज के बावजूद उन पर कोई असर नहीं था। उन परिंदों को जैसे पता था कि गोलियां उन्हें निशाना बनाकर नहीं मारी गईं।

घायल इंदिरा को सोनिया, धवन लेकर पहुंचे एम्स

एंबेसेडर तेजी के साथ एक अकबर रोड से निकली। आगे बैठे आर के धवन, दिनेश भट्ट और पीछे सोनिया ने इंदिरा का सिर अपनी गोद में रखा हुआ था। ये वो वक्त था जब गांधी परिवार ही नहीं एक और शख्स की जिंदगी बदलने जा रही थी। बीबीसी के संवाददाता सतीश जैकब के एक दोस्त की नजर सोनिया गांधी पर पड़ गई। उस दोस्त ने तुरंत जैकब को फोन मिलाया।

सतीश जैकब कहते हैं-उसने कहा कि एक सफदरजंग रोड के सामने से निकला तो इंदिरा गांधी के घर में से एक एंबुलेंस बाहर आई और मैं पक्का तो नहीं हूं लेकिन उसमें सोनिया गांधी बैठी हुई थीं और पता करो...क्या हुआ।

एक मंझे हुए पत्रकार को इशारा ही काफी था। कुछ तो गड़बड़ हुई है। जैकब ने तुरंत राजीव गांधी के निजी सचिव विन्सेट जॉर्ज को फोन मिलाया। लेकिन मुश्किल ये कि आखिर जॉर्ज से खबर कैसे पता करें।

सतीश जैकब कहते हैं कि जॉर्ज को मैंने फोन किया तो सोचा कि ऐसे सवाल करूं कि वो कुछ छुपा न सके। तो मैंने जॉर्ज से इतना कहा कि ज्यादा सीरियस तो नहीं है मामला। तो उसने कहा कि सीरियस तो नहीं है लेकिन एम्स ले गए हैं। मैंने कहा चलो एम्स चलकर देखते हैं।

इस बीच इंदिरा गांधी को लेकर एंबेसेडर कार तेजी से एम्स की तरफ भागती जा रही थी। वैसे तो एम्स में इंदिरा का पूरा रिकॉर्ड, उनके ब्लड ग्रुप का ब्योरा, सभी कुछ मौजूद था लेकिन अस्पताल पहुंचाने की हड़बड़ी में किसी को याद ही नहीं रहा कि एम्स फोन करके ये बता दिया जाए कि इंदिरा को गोली मारी गई है। घड़ी वक्त दिखा रही थी 9 बजकर 32 मिनट। एम्स पहुंचते ही इंदिरा गांधी को वीआईपी सेक्शन लेकर जाया गया लेकिन वो उस दिन बंद था। धवन उन्हें इमरजेंसी की तरफ लेकर भागे वहां कुछ नौजवान डॉक्टर मौजूद थे। वो मरीज को देखते ही हड़बड़ा गए। तभी किसी का दिमाग काम किया। उसने तुरंत अपने सीनियर कार्डियोलॉडिस्ट को खबर दी। वो सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट कोई और नहीं डॉक्टर वेणुगोपाल थे।

डॉक्टर वेणुगोपाल बताते हैं कि हमारे सहयोगी डॉक्टर ने बताया कि आप नीचे आ जाइए इंदिरा गांधी को लेकर आए हैं। उनको देखना है। हम उसी ड्रेस में नीचे गए थे कैजुएलिटी में। जब गए थे तो हमने देखा वो एक ट्रॉली पर लेटी हुई हैं और काफी खून बह रहा।

इस वक्त तक बीसीसी संवाददाता सतीश जैकब भी एम्स पहुंच गए थे। एम्स में तूफान से पहले वाला सन्नाटा था। इंदिरा के शरीर से लगातार खून बह रहा था। इमरजेंसी में तब तक दर्जन भर सीनियर डॉक्टर जुट चुके थे। पहली कोशिश ये कि लगातार बहते खून को रोका जाए। इंदिरा के शरीर का तापमान भी तेजी से नीचे गिर रहा था। डॉक्टरों ने तुरंत उनके फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुंचाने वाली मशीन लगाई। ईसीजी मशीन दिखा रही थी उनका दिल मंद गति से धड़क रहा था। इसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें हार्ट मशीन भी लगा दी हालांकि उन्हें इंदिरा की पल्स नहीं मिल रही थी। धीरे-धीरे इंदिरा की पुतलियां फैलती जा रही थीं। साफ था कि दिमाग में खून पहुंचना लगभग रुक गया है।

डॉक्टरों की टीम ने उन्हें आठवें फ्लोर के ऑपरेशन थिएटर में ले जाने का फैसला किया। हालांकि जिंदगी का कोई निशान उनके शरीर में नजर नहीं आ रहा था लेकिन फिर भी 12 डॉक्टरों की टीम चमत्कार की आस में उन्हें बचाने की कोशिश में जुट गई। इधर बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब भी तेजी के साथ एम्स पहुंचे। उन्हें ये तो मालूम था कि एक अकबर रोड पर कुछ अनहोनी हुई है लेकिन वो अनहोनी क्या है ये पता करना उनके लिए बड़ी चुनौती थी।

सतीश जैकब बताते हैं कि मैं गाड़ी पार्क करके लिफ्ट से उधर गया। जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकला तो देखा एक बुजुर्ग से डॉक्टर मुंह से कपड़ा हटा रहे थे। ऐसा लगता था कि मानो ओटी से आए हों तो मैंने फिर वही किया। मैंने ये नहीं पूछा कि आप किसका क्या कर रहे हो। मैंने पूछा-सब ठीक तो है ना। जान तो खतरे में नहीं है ना। उन्होंने मुझे बड़े गुस्से में देखा। कहा कैसी बात करते हो। अरे सारा जिस्म छलनी हो चुका है तो मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। वहीं आईसीयू के बाहर आर के धवन खड़े थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था कि चिंता में हैं। वहां आर के धवन से मैंने इतना कहा कि धवन साहब, ये तो बहुत बुरा हुआ। कैसे हुआ ये तो उन्होंने कहा कि वो अपने घर से निकल पैदल आ रही थीं। वो पीछे-पीछे चल रहे थे अचानक गोलियों की आवाज आई।

एम्स में चली जिंदगी बचाने की जद्दोजहद

बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब के हाथ में अब पुख्ता खबर थी- देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोली मारी गई है। इस खबर के साथ वो तुरंत एम्स से बाहर निकल गए। इधर आठवीं मंजिल के ऑपरेशन थिएटर में वेणुगोपाल और बाकी डॉक्टरों ने देखा कि गोलियों ने इंदिरा के लीवर को फाड़ दिया है। छोटी आंत, बड़ी आंत और एक फेफड़े को भी गोलियों ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया था। उनकी रीढ़ की हड्डी में भी गोलियां धंसी हुई थीं। जो एक चीज पूरी तरह सुरक्षित थी वो था इंदिरा का दिल।

डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि पहले तो एक ही मकसद था। उनको बचाने के लिए जहां से खून बाहर आ रहा है उनको सारे को कंट्रोल करना था। वो 4-5 घंटे लगे उनको कंट्रोल करने में। इसी टाइम पर उनका हार्ट फंक्शन, ब्रेन फंक्शन ठीक करने के लिए मशीन पर लगाया। तापमान भी कम कर दिया उनको बचाने के लिए।

लेकिन इंदिरा का शरीर उनका साथ छोड़ रहा था। डॉक्टर बड़ी बारीकी के साथ उनके शरीर से सात गोलियां निकाल चुके थे वक्त निकलता जा रहा था। डॉक्टरों के सामने एक मुश्किल इंदिरा का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप भी था। भारत में सौ लोगों में से सिर्फ एक का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप होता है। इंदिरा को बचाने के संघर्ष में डॉक्टरों ने उन्हें 88 बोतल ओ-नेगेटिव खून चढ़ाया।

डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि जितना कुछ हो सकता है किया। ब्लड बैंक ऑफीसर ने काफी कोशिश की। 80 से ज्यादा बोतल लाए वो। ओ नेगेटिव और ए नेगेटिव मिलाकर दिए गए। बहुत कोशिश की ताकि जितनी ब्लीडिंग हुई उसको रिप्लेस किया जा सके।

लेकिन ये 88 यूनिट खून भी बहुत काम ना आया। एक तरह से इंदिरा सिर्फ मशीन के भरोसे जिंदा थीं। ये वो वक्त था जब भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टरों ने भी हथियार डाल दिए।

डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि ये सब करने के बाद जब ब्लीडिंग बंद कर दी गई। तो फिर उनका हार्ट फंक्शन चालू करने की कोशिश की। जब वो बहुत देर के बाद भी नहीं हुआ तो फिर उसी वक्त हमने थोड़ी देर मशीन पर रखकर फिर फैसला करना पड़ा।

फैसला बहुत मुश्किल था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर कांग्रेस के दिग्गजों की भीड़ लगी हुई थी। वो मान चुके थे कि अब उनका बचना मुमकिन नहीं। उधर ऑपरेशन थिएटर के बगल वाले कमरे में एक और जद्दोजेहद चल रही थी। इंदिरा की मौत के बाद कौन बनेगा देश का प्रधानमंत्री। राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में अपना दौरा रद्द कर दिल्ली पहुंच चुके थे।

सभी की राय थी कि राजीव गांधी को ही देश की सत्ता सौंपी जाए लेकिन सोनिया गांधी अड़ी हुई थीं कि राजीव ये बात कतई मंजूर ना करें। आखिरकार राजीव ने सोनिया को कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनूं या ना बनूं दोनों ही सूरत में मार दिया जाऊंगा। राजीव के इस जवाब के बाद सोनिया ने कुछ नहीं कहा। आखिरकार दोपहर 2 बजकर 23 मिनट पर आधिकारिक तौर ये ऐलान कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर इंदिरा का पोस्टमॉर्टम करने के लिए फोरेंसिक विभाग से टी डी डोगरा को भी बुला चुके थे।

डॉक्टर टी डी डोगरा कहते हैं कि उस वक्त दोपहर के 2.10 हुए थे। मुझे बुलाकर बताया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। वहां इतनी ज्यादा भीड़ थी कि मुझे लगा लोग ऑपरेशन थिएटर का शीशा तोड़कर भीतर घुस आएंगे। हड़बड़ी में मैं अपने दस्ताने पहनने भी भूल गया था। मेरे सामने चुनौती थी कि उनका बुरी तरह जख्मी शरीर पोस्टमॉर्टम के बाद और ना बिगड़े। उनके शरीर पर गोलियों के 30 निशान थे और कुल 31 गोलियां इंदिरा के शरीर से निकाली गईं।

इस वक्त तक एम्स के बाहर भी हजारों लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। पुलिस वालों के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा था। हर तरफ इंदिरा गांधी के नारे गूंज रहे थे। हालत ये हो गई कि इंदिरा समर्थकों को संभालने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा।

लोग इंदिरा की मौत की खबर से बुरी तरह सन्न थे और उतना ही ज्यादा फूट रहा था उनका गुस्सा। हालत ये थी कि विएना के दौरे से लौटकर सीधे एम्स पहुंचे राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर भी पथराव कर दिया गया।

ये बहुत बड़े तूफान की आहट थी। लोग रो रहे थे। बिलख रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इंदिरा को भी कोई ताकत हरा सकती है। यही वो भीड़ थी जो रोते-रोते जब थक गई तो उसकी जगह गुस्से ने ली। ये गुस्सा आगे क्या करने वाला। इस बात का किसी को कोई एहसास नहीं था।

बीबीसी ने ही ब्रेक की खबर

बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब तेजी के साथ अपने दफ्तर वापस लौट रहे थे। दिल में तूफान कि इतनी बड़ी खबर है। उनका मन कर रहा था कि जितनी जल्दी हो सके ऑफिस पहुंचें। जैकब ने बताया कि हमें जो कोई भी खबर देनी होती थी वो हम टेलिफोन पर देते थे। वो हमारा रिकॉर्ड होता था तो खबर हमारी आवाज में जाती थी। एक प्रोब्लम ये थी कि उस वक्त एसटीडी वगैरह नहीं थी। इंटरनेशनल कॉल बुक करानी पड़ती थीं। उस दिन मुझे जल्दी कनेक्ट करा दिया। मेरे पास वक्त नहीं था टाइप करने का तो मैंने कहा कि छोटी सी खबर है। मैंने कहा-अभी थोड़ी देर पहले भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर घातक हमला हुआ है।

ये खबर बीबीसी रेडियो पर कुछ देर बाद चली। लेकिन जब चलनी शुरु हुई तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। उस वक्त अमेरिका में आधी रात हो रही थी। जानकारी के मुताबिक राष्ट्रपति रीगन को आधी रात में इंदिरा की हत्या की खबर दी गई। अमेरिका से लेकर रूस तक में हड़कंप मच गया। इधर देश के तमाम शहरों में बड़े-बड़े अखबार हरकत में आ चुके थे। ज्यादातर पत्रकारों को उनके घर से बुला लिया गया।

अखबार की मशीनें धड़ाधड़ चलने लगीं। दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, आज, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन भारत का हर अखबार इंदिरा की हत्या की खबर से पट गया। शाम को छपने वाले तमाम अखबार उस दिन कई घंटा पहले छपे। हालत ये थी कि अखबार की कॉपी बाजार में पहुंचते की हाथों-हाथ बिक रही थी लेकिन शाम चार बजे तक दूरदर्शन और आकाशवाणी पर इंदिरा की हत्या की कोई खबर नहीं थी। दुनिया भर में इस खबर का डंका पीटने वाले सतीश जैकब ने खुद ये बात आकाशवाणी के एक अधिकारी से पूछी।

सतीश जैकब ने बताया- वो कहने लगे भाई मैं क्या करूं। इतनी बड़ी खबर है और जब तक कि कोई सीनियर मिनिस्टर या अधिकारी इसको अप्रूव नहीं कर देता मैं इसको ब्रॉडकास्ट नहीं कर सकता। तो मैंने कहा कि क्यों नहीं कराया अप्रूव तो उन्होंने कहा कि प्रेसिडेंट यमन में हैं। होम मिनिस्टर प्रणब मुखर्जी राजीव के साथ पश्चिम बंगाल में हैं। उनका कहना था यहां कोई भी मिनिस्टर नहीं है दिल्ली मैं तो मैं क्या करूं।

बीबीसी के लिए ये भारत में बहुत अहम दिन था। पूरा देश इंदिरा की हत्या की खबर बार-बार सुनने के लिए जैसे बीबीसी रेडियो से चिपक गया था। खुद पश्चिम बंगाल से दिल्ली तक के रास्ते में राजीव गांधी भी बीच-बीच में बीबीसी पर ही खबरें सुनते आ रहे थे।

जल उठी थी दिल्ली

सुबह से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका था। मैंने देखा कि एम्स में एक अजीब सा तनाव बढ़ता जा रहा था। सैकड़ों की तादाद में वहां सिख भी आए थे। पहले इंदिरा गांधी अमर रहे के नारे भी लगा रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो एम्स से हटने लगे। जैसे-जैसे लोगों को ये पता चला कि इंदिरा की हत्या उनके ही दो सिख गार्डों ने की है। नारों का अंदाज भी बदलने लगा। राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर पथराव के बाद इन नारों की गूंज एम्स के आसपास के इलाकों में भी फैलती जा रही थी।

दोपहर ढलते-ढलते एम्स से वापस लौटते लोगों ने कुछ इलाकों में तोड़फोड़ भी शुरू कर दी थी। हॉस्पिटल के पास से गुजरती हुई बसों में से सिखों को खींच-खींच कर बाहर निकाला जाने लगा। दिल्ली में बरसों से रह रहे इन लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि कभी उनके खिलाफ गुस्सा इस कदर फूटेगा। धीरे-धीरे बसों से सिखों को खींचकर निकालने का सिलसिला पूरी दिल्ली में फैल गया लेकिन लोगों का गुस्सा यहीं नहीं थमा। पहला हमला 5 बजकर 55 मिनट पर हुआ विनय नगर इलाके में। यहां एक सिख लड़के को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी मोटरसाइकिल में आग लगा दी गई। इस आग में पूरी दिल्ली धधकने जा रही थी।

उस वक्त के हालात का अंदाजा लगना मुश्किल है। एक के बाद एक दुकानों के शटर गिर रहे थे। इंदिरा की मौत की घोषणा के बाद पूरे के पूरे बाजारों में सन्नाटा पसर गया। सड़कों पर चल रही गाड़ियां ना जाने कहां गायब हो गईं। ऐसा लगा जैसे कर्फ्यू लगा दिया गया हो लेकिन इस सन्नाटे के बीच सिख विरोधी नारे लगातार बढ़ते जा रहे थे। 31 अक्टूबर के सूरज ने दिन भर में बहुत कुछ देख लिया था। डूबते सूरज की लाल रोशनी भी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी लेकिन सूरज के डूबने के बाद भी लाल रोशनी खत्म नहीं हुई। जलते हुए घरों से उठती हुई रोशनी...वो भी तो लाल ही थी।

(From-IBNKHABAR.com)

Sunday, October 30, 2011

चाह कर भी नहीं भूल सकते ........... इंदिरा जी की शहादत

इंदिरा का जन्म 19 नवंबर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू और इनकी माता कमला नेहरू थीं। इंदिरा को उनका गांधी उपनाम फिरोज गाँधी से विवाह के पश्चात मिला था। इनका मोहनदास करमचंद गाँधी से न तो खून का और न ही शादी के द्वारा कोइ रिश्ता था। इनके पितामह मोतीलाल नेहरू एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व्यäतिव थे और आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे।
1934-35 में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात,
इंदिरा
ने शानितनिकेतन में रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविधालय में प्रवेश लिया। रविंद्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे प्रियदर्षिनी नाम दिया था। इसके पश्चात यह इंग्लैंड चली गइं और अक्सफोर्ड विश्वविधालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं, परन्तु यह उसमे विफल रहीं, और बि्रस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताने के पश्चात, 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद इन्होने सोमरविल कलेज, अक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी अक्सर फिरोज गाँधी से मुलाकात होती थी, जिन्हे यह इलाहाबाद से जानती थीं, और जो लंदन स्कूल अ‚फ इक‚न‚मिक्स में अध्ययन कर रहे थे। अंतत: 16 मार्च 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्म ब्रह्रा-वैदिक समारोह में इनका विवाह फिरोज से हुआ। अक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं। 1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन 1964 में उनकी नियुक्ति राज्यसभा सदस्य के रूप में हुइ। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।श्री लालबहादुर शास्त्री के आकसिमक निधन के बाद तत्कालीन कग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में असिथरता की सिथती में उन्होंने सन 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं कग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। सन 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं। जिसमे आगे चलकर सन 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुइ।
1967 के बाद जिला रायबरेली सुर्खियों में आया जब 1967 श्रीमती. इंदिरा गांधी अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में चयन किया है, जब 1977 में सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री श्रीमती. इंदिरा गांधी जनता पार्टी नेता श्री राजनारायण से हार
गई थी
, और उसके बाद 1984 में जब प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी अमेठी से निर्वाचित किया गया था, तो देश के manch में रायबरेली का राजनीतिक महत्व सबके सामने आया । इन 27 वर्षों के दौरान (1967 - 1994), जिला रायबरेली राष्ट्र को दो प्रधानमंत्रियों दिया है। बि्रटिश शासनकाल के बाद से, आज तक रायबरेली की जमीनी राजनीति कांग्रेस के हाथ रही । आजादी के बाद से आज तक, केवल दो बार गैर कांग्रेस उम्मीदवार यहाँ से लोकसभा गया था, (1977 में जनता पार्टी द्वारा श्री राज नारायण और भाजपा के श्री अशोक सिंह ने 1994 में). 1967 के बाद से जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में रायबरेली का चयन किया उसके पहले 1952 से 1966 तक, सोशलिस्ट पार्टी जैसे विपक्षी दलों के प्रभाव बहुत ज्यादा था इंदिरा गांधी को प्रथम महिला प्रधानमंत्री के रूप में जाना जाता है, उन्होंने रायबरेली के समग्र विकास की दिशा में ध्यान दिया. उसके शासन के दौरान इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज, रायबरेली कपड़ा मिल, राज्य सिपनिंग मिल, मोदी कालीन फैक्ट्री और एक दर्जन अन्य उधोगों की स्थापना थे. . जिले में कुल सिंचाइ सुविधाओं को प्रदान किया गया. धातु और कंक्रीट सड़कों का निर्माण और उच्च शिक्षा की सुविधा भी प्रदान किया गया. वह आधुनिक रायबरेली का प्रतीक था. लाखों रुपए जिले के विकास पर खर्च किए गए थे। इस अवधि के दौरान, रायबरेली कांग्रेस और भारतीय राजनीति के नाभिक बन गया. एक बार 1976 में कैबिनेट की बैठक रायबरेली में की गई न की राज्य की राजधानी में आयोजित की थी. जिला रायबरेली कांग्रेस कार्यकर्ताओं के तीर्थ बन गया. श्रीमती गांधी के बयान के बावजूद, सभी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हर चुनाव से पहले इस तीर्थयात्रा में आने की इच्छा थी. इस अवधि के दौरान रायबरेली में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रेस में भरपूर प्रचार मिला । व्यस्त राजनीतिक कार्यक्रम के कारण इंदिरा जी राजनीतिक एजेंट के रूप में यशपाल जी केंद्रीय कर्यालय से चुनाव प्रचार देखते थे इस दौरान यहाँ के लोकल कार्यकर्ताओं को तुच्छ बना दिया गया था लेकिन कांग्रेस आलाकमान द्वारा नामित जिले का प्रभुत्व है, 1976 में संजय गाँधी के सक्रिय राजनीती में आने के बाद यहाँ की राजनीती और उछल मारने लगी

इन्दिरा जी प्रधानमंत्री होने के नाते यह क्षेत्र हमेशा सुर्ख़ियों में रहा ,उन्होंने 1967 और 1971 में रायबरेली से चुनाव लड़ा और1977 में उन्हें जनता पार्टी के श्री राजनारायण द्वारा आपातकाल के बाद हराया गया था रायबरेली से उनका मान भर गया तब उन्होंने 1980 में चुनाव लड़ा मेडक (आंध्र प्रदेश) से भी, और रायबरेली की सीट छोड़ दी जहां बाद में कांग्रेस के श्री अरुण नेहरू ने उपचुनाव में विजय श्री प्राप्त की ..1991 में श्री राजीव गांधी की हत्या के बाद इस सीट को 1991 में कांग्रेस के कैप्टन सतीश शर्मा और 1994 में श्री भाजपा के अशोक सिंह द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया लेकिन 1999 श्रीमती, सोनिया गांधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में अमेठी का चयन कियाऔर एक रिकार्ड मार्जिन के साथ लोकसभा पहुची। उसके बाद श्रीमती गाँधी ने 2004 के लोकसभा आम चुनाव में निर्वाचन क्षेत्र के रूप में रायबरेली का चयन किया और वह रिकार्ड मार्जिन के साथ लोकसभा पहुच गई तब से लेकर आज तक यह सीट उनके कब्जे में है ...